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________________ 卐 ) ) )) )))) )))) )) ))) )))) )) )) ))) विवेचन : प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सूत्र १० से २२ तक) में ऐर्यापथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में ज 卐 निम्नोक्त छह पहलुओं से विचारणा की गई है १. ऐर्यापथिक या साम्परायिक कर्म चार गतियों में से किस गति का प्राणी, बाँधता है ? २. स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि में से कौन बाँधता है ? ३. स्त्री-पश्चात्कृत, पुरुष-पश्चात्कृत, नपुंसक-पश्चात्कृत एक या अनेक अवेदी में से कौन अवेदी बाँधता है ? ४. दोनों कर्मों के बाँधने की त्रिकाल सम्बन्धी चर्चा। ५. सादिसपर्यवसित आदि चार विकल्पों में से कैसे इन्हें बाँधता है ? ६. ये कर्म देश से आत्म-देश को बाँधते हैं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर। ___बन्ध : स्वरूप एवं विवक्षित दो प्रकार-जैसे शरीर में तेल आदि लगाकर धूल में लोटने पर उस व्यक्ति के शरीर पर धूल चिपक जाती है, वैसे ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के प्रदेशों में जब ॐ हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्म-प्रदेश होते हैं, वहीं के अनन्त-अनन्त तद्-तद् योग्य कर्मपुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ बद्ध हो जाते हैं। दूध-पानी की तरह कर्म और आत्म-प्रदेशों का एकमेक होकर मिल जाना बन्ध है। विवक्षाविशेष से यहाँ कर्मबन्ध के दो प्रकार कहे गये हैं-१. ऐपिथिक, और म २. साम्परायिका केवल योगों के निमित्त से होने वाले सातावेदनीयरूप बन्ध को ऐर्यापथिककर्मबन्ध कहते हैं। यह फ़ वीतरागी जीवों को होता है, जिनसे चतर्गतिकसंसार में परिभ्रमण हो, उन्हें सम्पराय-कषाय कहते हैं, सम्परायों 卐 (कषायों) के निमित्त से होने वाले कर्मबन्ध को साम्परायिक कर्मबन्ध कहते हैं। यह प्रथम से दशम गुणस्थान तक होता है। ऐर्यापथिक कर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, बन्धकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धांश-(१) बंध का स्वामी-ऐर्यापथिक कर्म : का बन्ध चार गति में केवल मनुष्यों को ही होता है। मनुष्यों में भी ग्यारहवें (उपशान्तमोह), बारहवें (क्षीणमोह) ॐ और तेरहवें (सयोगीकेवली) गुणस्थानवी मनुष्यों को ही होता है। ऐसे मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों ही होते हैं। ऊ जिसने पहले ऐर्यापथिक कर्म का बंध किया हो, अर्थात्-जो ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के द्वितीय-तृतीय आदिम समयवर्ती हो, उसे पूर्वप्रतिपन्न कहते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इसे बहुत-से मनुष्य नर और बहुत-सी मनुष्य नारियाँ बाँधती हैं; क्योंकि ऐसे पूर्वप्रतिपन्न स्त्री और पुरुष बहुत होते हैं और दोनों प्रकार के केवली (स्त्रीकेवली और पुरुषकेवली) सदा पाए जाते हैं, इसलिए इसका भंग नहीं होता। जो जीव ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के प्रथम समयवर्ती होते हैं, वे 'प्रतिपद्यमान' कहलाते हैं। इनका विरह सम्भव है। इसलिए एकत्व और बहुत्व को लेकर : इनके (स्त्री और पुरुष के) असंयोगी ४ भंग और द्विकसंयोगी ४ भंग, यों कुल ८ भंग बनते हैं। (२) ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में जो स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि को लेकर प्रश्न किया गया है, वह ॥ लिंग की अपेक्षा समझना चाहिए, वेद की अपेक्षा नहीं, क्योंकि ऐर्यापथिक कर्मबन्धकर्ता जीव उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी ही होते हैं। इसीलिए इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है-अपगतवेद-वेद के उदय से रहित जीव ही इसे बाँधते हैं। (३) जो जीव गतकाल में स्त्री था. किन्त अब वर्तमानकाल में अवेदी हो गया है, उसे स्त्री-पश्चातकत ॐ कहते हैं, इसी तरह 'पुरुष-पश्चात्कृत' और 'नपुंसक-- पश्चात्कृत' का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इन तीनों 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F 5 6 $$$$$ $$$$$$$$$ | भगवती सूत्र (३) (170) Bhagavati Sutra (3) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002904
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages664
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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