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अंतरद्वार INTERVENING PERIOD
१३८. अंतरं सव्वं जहा जीवाभिगमे।
१३८. इन सब (दसों) का अन्तर जीवाभिगम सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। (अन्तरद्वार) ___138. The intervening period (antar kaal) related to these ten should be excerpted from Jivabhigam Sutra. (Antar-dvar) ज्ञानी और अज्ञानी जीवों का अल्पबहुत्व COMPARATIVE NUMBERS INANI AND AJNANI BEINGS
१३९. अप्पाबहुगाणि तिण्णि जहा बहुवत्तव्वताए।
१३९. इन सबका अल्पबहुत्व (प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय-) बहुवक्तव्यता पद के अनुसार जानना , चाहिए। (अल्पबहुत्वद्वार)
139. The comparative numbers (alpabahutva) of these ten should be excerpted from Bahuvaktavyatapad, the third chapter of Prajnapana Sutra. (Alpabahutva-dvar)
विवेचन : ज्ञानी का ज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल-ज्ञानी के दो प्रकार हैं-(१) सादि-अपर्यवसित, और (२)
दे-सपर्यवसित। प्रथम ज्ञानी ऐसे हैं, जिनके ज्ञान की आदि तो है. पर अन्त नहीं। ऐसे ज्ञानी केवलज्ञानी होते है हैं अथवा 2, 3, 4 ज्ञान पाकर उनका अन्त नहीं होता है। आगे वे केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान का काल सादि-अनन्त है, अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होकर फिर कभी नष्ट नहीं होता। द्वितीय ज्ञानी ऐसा है, जिसकी आदि भी है, अन्त भी है। ऐसा ज्ञानी मति आदि चार ज्ञान वाला होता है। मति आदि चार ज्ञानों का कालज सादि-सपर्यवसित है। इनमें से मति और श्रतज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक अन्तर्महत है। अवधि और मन पर्यवज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक समय है। आदि के तीनों ज्ञानों का उत्कृष्ट स्थितिकाल कुछ अधिक ६६ - सागरोपम है। मनःपर्यवज्ञान का उत्कृष्ट स्थितिकाल देशोन करोड़ पूर्व का है। अवधिज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक समय का इसलिए बताया है कि जब किसी विभंगज्ञानी को सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में ही विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इसके पश्चात शीघ्र ही दूसरे के समय में यदि वह अवधिज्ञान से गिर जाता है तब अवधिज्ञान केवल एक समय ही रहता है। मनःपर्यायज्ञानी भी अवस्थितिकाल जघन्य एक समय इसलिए बताया है कि अप्रमत्तगणस्थान में स्थित किसी संयत (मनि) को मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न होता है और तुरन्त ही दूसरे समय में नष्ट हो जाता है। मनःपर्यायज्ञानी का उत्कृष्ट अवस्थितिकाल देशोन पूर्वकोटि वर्ष का इसलिए बताया है कि किसी पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य ने चारित्र अंगीकार किया। चारित्र अंगीकार करते ही उसे मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न हो जाए और यावज्जीवन रहे तो उसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून पूर्व कोटिवर्ष घटित हो जाता है।
त्रिविध अज्ञानियों का तद्रूप अज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल-अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी ये तीनों स्थितिकाल की दृष्टि से तीन प्रकार के हैं-(१) अनादि-अपर्यवसित (अनन्त), अभव्यों का होता है। (२) अनादि-सपर्यवसित (सान्त), जो भव्य जीवों का होता है। और (३) सादि-सपर्यवसित (सान्त), जो सम्यग्दर्शन से पतित जीवों का होता है। इनमें से जो सादि-सान्त हैं, उनका जघन्य अवस्थितिकाल त का है; क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। इसका उत्कृष्ट
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| भगवती सूत्र (३)
(84)
Bhagavati Sutra (3)
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