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स्थितिकाल अनन्तकाल है (अर्ध पुद्गल परावर्त काल), क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अनन्त फ उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल व्यतीत कर अथवा वनस्पति आदि में अनन्त उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी व्यतीत करके 5 अनन्तकाल के पश्चात् पुनः सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है । विभंगज्ञान का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय है; क्योंकि उत्पन्न होने के पश्चात् उसका दूसरे समय में विनष्ट होना सम्भव है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का है, क्योंकि कोई मनुष्य कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विभंगज्ञानी बना फ रहकर सातवें नरक में उत्पन्न हो जाता है, उसकी अपेक्षा से यह कथन है। (वृत्ति, पत्रांक ३६१, हिन्दी विवेचन, 5 भाग ३, पृ. १३६३)
पाँच ज्ञानों और तीन अज्ञानों का परस्पर अन्तरकाल - एक बार ज्ञान अथवा अज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाए और फिर दूसरी बार उत्पन्न हो तो दोनों के बीच का काल अन्तरकाल कहलाता है। यहाँ पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान के अन्तर के लिए जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश (सन्दर्भ) किया गया है। वहाँ इस प्रकार से अन्तर बताया गया है-आभिनिबोधिक ज्ञान का काल से पारस्परिक अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक का या कुछ कम अपार्द्ध-पुद्गल परिवर्तन काल का है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः 5 पर्यायज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए। केवलज्ञान का अन्तर नहीं होता। मति अज्ञान और श्रुत- अज्ञान का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक ६६ सागरोपम का है । विभगंज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। (वृत्ति, पत्रांक ३६१, जीवाभिगमसूत्र (अन्तरदर्शक पाठ), सू. २६३ )
पाँच ज्ञानी और तीन अज्ञानी जीवों का अल्पबहुत्व - पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान से युक्त जीवों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय पद में बताया गया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है - सबसे अल्प मनः पर्यायज्ञानी हैं। क्योंकि फ मनःपर्यायज्ञान केवल ऋद्धि प्राप्त संयतों को ही होता है। उनसे असंख्यातगुणे अवधिज्ञानी हैं; क्योंकि क अवधिज्ञानी जीव चारों गतियों में पाए जाते हैं। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं। इसका कारण यह है कि अवधि आदि ज्ञान से रहित होने पर भी कई पंचेन्द्रिय और कितने ही विकलेन्द्रिय जीव (जिन्हें सास्वादन सम्यग्दर्शन हो) आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं। फ्र आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर साहचर्य होने से दोनों ज्ञानी तुल्य हैं। इन सभी से सिद्ध अनन्तगुणे होने से केवलज्ञानी जीव अनन्तगुणे हैं। तीन अज्ञानयुक्त जीवों में सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, क्योंकि विभंगज्ञान पंचेन्द्रिय जीवों को ही होता है। उनसे मति - अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव भी मति - अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी होते हैं और वे अनन्त हैं, परस्पर तुल्य भी हैं, क्योंकि इन दोनों का परस्पर साहचर्य है । ( वृत्ति, पत्रांक ३६२)
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तुल्य और
Elaboration-Period of sustenance of knowledge-Those endowed with knowledge (jnanis) are of two kinds-(1) saadi-aparyavasit (with a beginning and without an end) and (2) saadi-saparyavasit (with a 卐 beginning and with an end). First kind are those whose knowledge has a beginning but no end. Such individuals are omniscients. The period of sustenance of Keval-jnana is with a beginning but without an end. In other words, once acquired, Keval jnana is never lost. Second kind are those whose knowledge has a beginning as well as an end. Such an individual has four jnanas (kinds of right knowledge) including Matiअष्टम शतक द्वितीय उद्देशक
Eighth Shatak: Second Lesson
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