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धर्मशास्त्र का इतिहास 'सन्त्रालोक : अभिनवगुप्त द्वारा लिखित; जयरथ नामक टीका; कई खण्डों में काश्मीर सं० सी० में प्रकाशित ; लगभग १००० ई० में प्रणीत ।
तारातन्त्र : गिरीशचन्द्र द्वारा सम्पा० गौड़ ग्रन्थमाला (सं० १, १६१३) द्वारा प्रकाशित; ६ पटलों एवं १५० श्लोकों में; इसमें आया है कि बुद्ध एवं वसिष्ठ प्राचीन तान्त्रिक मुनि हैं। इसमें 'नाथ' से अन्त होने वाले ६ गुरुओं के नाम आये हैं; इसने महाचीनाख्यतन्त्र का उल्लेख किया है और पुरुष भक्तों से कहा है कि वे तारा को अपना रक्त दें। ... ताराभक्तिसुधार्णव : लेखक नरसिंह ठक्कुर, जो काव्यप्रकाश की टीका प्रदीप के लेखक गोविन्द ठक्कुर
में पांचवें हैं । १६८० ई० में प्रणीत; पंचानन भट्टाचार्य द्वारा सम्पादित (तान्त्रिक टेक्ट्स
०); ११ तरंगों एवं ४३५ पृष्ठों में तारा की पूजा पर एक विशाल ग्रन्थ ; यहाँ तारा
हीं है, प्रत्युत वह शक्ति से सम्बन्धित १० विद्याओं में एक है। श्वी तरंग में शवसाधना कृत्य का भयंकर वर्णन है (पृ० ३४५-३५१)।
तारारहस्य : ब्रह्मानन्द द्वारा लिखित ; जीवानन्द (१८६६) द्वारा प्रकाशित ; इसमें महाचीन, नीलतन्त्र, योगिनीतन्त्र एवं रुद्रयामल का उल्लेख है।
त्रिपुरारहस्य : लेखक हारीतायन; श्रीनिवास की टीका तात्पर्यदीपिका के साथ; एस० बी० सीरीज में प्रकाशित; यह हारीतायन द्वारा नारद को दिया गया प्रवचन है। इसका ताराखण्ड वाला अंश दार्शनिक है।
त्रिपुरासारसमुच्चय : नागभट्ट द्वारा लिखित; गोविन्दाचार्य की टीका; जीवानन्द द्वारा प्रकाशित (१८६७)।
. दक्षिणामूर्तिसंहिता : यह श्रीविद्योपासना पर है; ६५ पटल एवं १७०० श्लोक हैं; एस० बी० सीरीज में प्रकाशित। . नित्यायोडशिकार्णव : (वामकेश्वरतन्त्र का एक अंश); भास्करराय (१७००-१७५० ई०) की टीका; आनन्दाश्रम प्रेस द्वारा प्रकाशित (१६४४)।
नित्योत्सव : उमानन्दनाथ द्वारा लिखित; दीक्षा के पूर्व उमानन्दनाथ का नाम था जगन्नाथ, जो महाराष्ट्र ब्राह्मण थे और तऔर के मराठा सरदार द्वारा माने-जाने जाते थे; यह परशुरामकल्पसत्र का एक पूरक ग्रन्थ है; उमानन्दनाथ के गुरु थे भासुरानन्दनाथ (दीक्षा के पूर्व भास्करराय); यह ग्रन्थ कलि संवत् ४८४६ ( रसाणव-करि-वेदमितेषु ) अर्थात् १७४५ ई० में प्रणीत हुआ । यह सम्भव है कि 'अर्णव' शब्द ४ के स्थान पर ७ के लिए प्रयुक्त हुआ हो (अर्थात् ४८७६=१७७५ हो सकता है); गायकवाड़ सं० सी० (१६२३) में प्रकाशित ।
___ निष्पन्नयोगावली : बंगाल के राजा रामपाल (१०८४-११३० ई०) के समकालीन अभयाकरगुप्त द्वारा प्रणीत । यह बौद्ध ग्रन्थ है। इसका लेखक विहार के विक्रमशिला नामक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था; इसने २६ मण्डलों का उल्लेख किया है, प्रत्येक मण्डल में एक केन्द्रीय देवता रहता है और अन्य गौण देवताओं की संख्या अधिक होती है, कहीं कहीं तो १०० से अधिक । पश्चात्कालीन बौद्धधर्म का यह एक मूल्यवान् ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें देवताओं एवं कृत्य-विधि का उल्लेख है । गायक० सं० सीरीज में प्रकाशित (१६४१ई।
परशुरामकल्पसूत्र : रामेश्वर की टीका सौभाग्योदय के साथ; गायक० सं० सीरीज (१६२३) में प्रकाशित; १३०० ई० से पूर्व प्रणीत; महादेव के मुख्य शिष्य एवं जमदग्नि के पुत्र परशुराम द्वारा प्रणीत कहा गया है।
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