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________________ ७६ धर्मशास्त्र का इतिहास ८ दल वाले कमल (कभी-कभी लाल रंग में रँगे) होते हैं, १६ दल वाले कमल (नीले रंगों में) होते हैं, तब तीन वृत्त होते हैं, तब चार द्वारों वाली तीन सीमा-रेखाएँ होती हैं, जिनमें दो यन्त्र के बाहरी भागों की द्योतक होती हैं और ८ एवं १६ दलों के कमल यन्त्र के भीतरी भाग में होते हैं। कुल मिलाकर ४३ कोण (कछ ग्रन्थों में ४४ ) होते हैं। सीमा-रेखाओं के भीतर का चक्र-भाग भूपुर कहलाता है। यन्त्र की पूजा बहिर्याग (शक्ति की बाहरी पूजा) कहलाती है । अन्तर्याग में मूलाधार से आज्ञाचक्र तक के चक्रों द्वारा जाग्रत कुण्डलिनी को ले जाना होता है और तब उसे सहस्रार-चक्र में शिव से मिलाना होता है । मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा नामक छह चक्रों को पाँच तत्त्वों एवं मन के अनुरूप माना गया है । यह सौन्दर्यलहरी (श्लोक ६) में वर्णित है। बािंग विधि द्वारा शक्ति-पूजक शक्ति-पूजा में कितना आगे बढ़ गये हैं इसकी जानकारी लक्ष्मीधर की टीका के एक वक्तव्य से हो सकती है, क्योंकि लक्ष्मीधर सौन्दर्यलहरी के सबसे अन्तिम टीकाकार हैं और वे कौलिकों की विधियों से भयाक्रान्त थे।२३ नित्याषोडशिकार्णव की टीका सेतुबन्ध ने बड़े बल के साथ कहा है कि त्रिपुरसुन्दरी की पूजा उपासना के प्रकार की है न कि भक्ति के प्रकार की, और यह उपासना दो ढंग की है, एक में देवी के मन्त्र का जप होता है और दूसरे में यन्त्र की पूजा होती है (नित्या० १।१२५) । श्लोक १२६-२०४ में श्रीचक्र की पूजा के विभिन्न विषयों का उल्लेख है । नित्याषोडशिका० तथा अन्य तन्त्र ग्रन्थों का कहना है कि त्रिपुरसुन्दरी श्रीचक्र में निवास करती हैं।२४ शाक्त साधक का महान् ध्येय होता है यन्त्र, मन्त्र, गुरु एवं त्रिपुरादेवी से तादात्म्य स्थापित करना । वर्षक्रियाकौमुदी (पृ० १४७) ने एक श्लोक उद्धृत कर कहा है कि मन्त्रों से यन्त्र-पूजा का सम्पादन होना चाहिए, और ऐसा करने पर साधक अभीष्ट की प्राप्ति कर लेता है ।।२५ __ शारदातिलक जैसे गम्भीर ग्रन्थ ने भी दुष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यन्त्रों के आलेखन की अनुमति दी है। उदाहरणार्थ, ७।५८-५६ में आया है कि शत्रु-नाश के लिए श्मशान से चिता-वस्त्र लेकर उस पर आग्नेय यन्त्र बना कर शत्रु के घर के पास गाड़ देना चाहिए। और देखिए उसी ग्रन्थ में २४।१७-१८ एवं १६-२१, जहाँ शत्रुनाश के लिए दो यन्त्रों का उल्लेख है। प्रपंचसार (३४।३३) में भी एक यन्त्र का उल्लेख है, जिसके प्रयोग से स्त्री साधक के पास पहुँच जाती है । २३. तवाधार मूले सह समयया लास्यपरया नवात्मानं मन्ये नवरसमहाताण्डव नटम् । उभाभ्यामेताभ्यामुदयविधिमुद्दिश्य दयया सनाथाभ्यां जज्ञे जनकजननीमज्जगदिदम् ॥ सौन्दर्यलहरी, श्लोक ४१ (पृ० १८१, गणेश एण्ड कम्पनी का संस्करण , १६५१)। लक्ष्मीधर को टीका में इस प्रकार आया है : 'अत एव कौलास्त्रिकोणे बिन्दु नित्यं समर्चयन्ति । ... श्रीचक्रस्थितनवयोनिमध्यगतयोनि भूर्जहेमपट्टवस्त्रपीठादौ लिखितां पूर्वकौलाः पूजयन्ति । तरुण्याः प्रत्यक्षयोनिमुत्तरकौलाः पूजयन्ति । उभयं योनिद्वयं बाह्यमेव नान्तरम् । अतस्तेषामाधारचक्रमेव पूज्यम् ।...अत्र बहु वक्तव्यमस्ति तत्तु अवैदिकमार्गत्वात् स्मरणार्हमपि न भवति।' २४. संस्थितात्र महाचक्रे महात्रिपुरसुन्दरी। नित्याषोडशिका० (११८२); ज्ञात्ता स्वात्मा भवेज्ज्ञानमध्यज्ञेयं बहिः स्थितम् । श्रीचक्रपूजनं तेषामेकीकरणमीरितम् ॥ तन्त्रराजतन्त्र (२३५॥६); आसीन चक्रे सा त्रिपुरसुन्दरीदेवी । कामेश्वरांकनिलंया कलया चन्द्रस्य कल्पितोत्तंसा ।। कामकलाविलास (श्लोक ३७) । २५. सर्वेषामपि मन्त्राणां पूजा यन्त्रे प्रशस्यते। यन्त्र मन्त्रं समाराध्य यदभीष्टं तदाप्नुयात् ॥ व० क्रि० कौ० (पृ० १४०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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