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________________ न्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आदि ७५ १०५-१३५), मेरुतन्त्र ( ३३वाँ प्रकाश, ५६२वाँ श्लोक ), मन्त्र महार्णवतन्त्र ( उत्तरखण्ड, ११वीं तरंग) आदि में यन्त्रों का उल्लेख है । इन तान्त्रिक ग्रन्थों में यन्त्र के विषय में जो कुछ कहा गया है उसका विवरण उपस्थित करना यहाँ सम्भव नहीं है । पद्मपुराण (पातालखण्ड, ७६ । १ ) में आया है कि हरि (विष्णु) की पूजा शालग्राम-शिला पर या रत्न पर या यन्त्र, मण्डल पर या प्रतिमाओं में हो सकती है, केवल मन्दिरों में ही नहीं । अहिर्बुध्न्य० (३६, श्लोक ५-६६ ) ने सुदर्शन यन्त्र की पूजा की विधि का वर्णन किया है जो राजा द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा समृद्धि के लिए की जाती है । हम यहाँ पर एक यन्त्र या चक्र का वर्णन कर रहे हैं । सबसे प्रमुख एवं प्रसिद्ध है श्रीचक्र जो दो श्लोकों (जो नीचे पाद-टिप्पणी में दिये हुए हैं) में वर्णित है और उसकी व्याख्या नित्याषोडशिकार्णव (१।३१-४६ ) की टीका सेतुबन्ध में हुई है । २२ एक छोटे से त्रिभुज में एक बिन्दु के साथ चक्र खींचा जाता है । वह बिन्दु शक्ति या मूल प्रकृति का द्योतक है । तन्त्रों पर प्रकाशित ग्रन्थों में श्रीचक्र रंगों में खींचा गया है ( सौन्दर्य लहरी, गणेश एण्ड कम्पनी, मद्रास, १६५७), किन्तु अन्य तन्त्रों में सादे ढंग से खींचा गया है ( कामकलाविलास, ए० एवालोन द्वारा सम्पादित एवं गणेश एण्ड कम्पनी, मद्रास द्वारा प्रकाशित, १६५३) । कुछ ग्रन्थों में श्रीचक्र के चित्र में द्वार नहीं हैं ( ए० एवालोन कृत 'प्रिंसिपुल्स आव तन्त्र' का मुखपृष्ठ ) किन्तु कहीं कहीं द्वार दिखाये गये हैं ( सौन्दर्य लहरी ) । कुल ६ त्रिभुज होते हैं, जिनमें पाँच के शीर्ष कोण नीचे लटके रहते हैं और ये सभी शक्ति के द्योतक हैं, अन्य चार त्रिभुजों (शिव के द्योतक ) के शीर्षकोण ऊपर होते हैं। सबसे छोटे त्रिभुज में, जो नीचे की ओर झुका रहता है, बिन्दु बना हुआ होता है । पुनः दस-दस त्रिभुजों के दो दल होते हैं ( कुछ ग्रन्थों में नीले एवं लाल रंगों में प्रदर्शित हैं ), फिर २२. बिन्दू-त्रिकोण वसुकोण-दशारयुग्म मन्वत्रनागदलसंयुतषोडशारम् । वृत्तत्रयं च धरणी सदनत्रयं च श्रीचक्रराजमुदितं परदेवतायाः ॥ आनन्दगिरि के शंकरविजय द्वारा उद्धृत ( पृ० २५५ ) । नित्याषोडशिका ० (१।३१ ) की टीका सेतुबन्ध एवं यामल ( सम्भवतः रुद्रयामल, जो आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रणीत कहा जाता है) एवं 'चतुभिः श्रीकण्ठः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूल प्रकृतिभिः । त्रयश्चत्वारिशद्वसुवलकलाश्म - त्रिवलय- त्रिरेखाभिः सार्धं तव भवनकोणाः परिणताः ॥ सौन्दर्यलहरी ( श्लोक ११, गणेश एण्ड कम्पनी, मद्रास, १६५७, लक्ष्मीधरा नामक टीका के साथ) में कुछ लोग दूसरे श्लोक में चतुश्चत्वारिंशत् पढ़ते हैं। वसु का अर्थ है ८, मनु का १४, नाग का ८ एवं कला का १६ । इसके वर्णन के दो रूप हैं— (१) बिन्दु से आगे (जिसे सृष्टि-क्रम कहा जाता है) या (२) बाहरी रेखाओं से बिन्दु की ओर (जिसे संहारक्रम कहा जाता है) । देखिए सर जॉन वुड्रौफ कृत 'शक्ति एण्ड शाक्त' (तीसरा संस्करण, १६२६, गणेश एण्ड कम्पनी, मद्रास द्वारा प्रकाशित), पृ० ३६६ पर श्रीचक्र के चित्र की व्याख्या दी हुई है । देवीरहस्य ( डकन कालेज पाण्ड लिपि, सं० ४६०, १८६५-६६ ) नामक तान्त्रिक ग्रन्थ ने 'बिन्दुत्रिकोण ... देवतायाः' को उद्धृत किया है, किन्तु इस चक्र का एक अन्य ढंग से वर्णन करने वाले एक दूसरे श्लोक को भी उद्धत किया है । विभिन्न ग्रन्थों में चक्रों का वर्णन विभिन्न ढंगों से हुआ है। उदाहरणार्थ, डकन कालेज की पाण्डुलिपि सं० ६६२ (१८८४१८८७) ने कौलागम के अनुसार दुर्गा पूजा में प्रयुक्त चक्रभेद को पाँच चक्रों के रूप में माना है, यथा— राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, बीरचक्र एवं पशुचक्र ; किन्तु पाण्डुलिपि सं० ६६४ (१८८७ - ६१ ) में कुछ अन्य चक्र भी दिये गये हैं, यथा-- अकडमचक्र, ऋणधनशोधनचक्र, राशिचक्र, नक्षत्रचक्र (कंटॉलॉग, जिल्द १६, तन्त्र, पृ० २५१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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