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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास में होता है किन्तु यन्त्र का उपयोग किसी विशिष्ट देवता की पूजा या किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए होता है। कुलार्णवतन्त्र'९ में आया है-'यन्त्र का विकास मन्त्र से हुआ है, और इसे मन्त्र रूपी देवता कहा गया है, यन्त्र पर पूजित देवता सहसा प्रसन्न हो जाता है (और अनुग्रह करता है), प्रेम एवं क्रोध नामक दोषों से उत्पन्न क्लेशों को दूर करता है अतः इसे यन्त्र कहा जाता है। यदि यन्त्रों में परमात्मा पूजित हो तो वह प्रसन्न हो जाता है। उसी तन्त्र में पुन: आया है कि 'यदि पूजा यन्त्र के बिना की जाय तो देवता प्रसन्न नहीं होता । यहाँ पर 'यन्त्र' शब्द 'यन्त्र धातु से निकला कहा गया है । एक अन्य स्थान पर इसी तन्त्र में आया है कि यन्त्र इसलिए कहा जाता है कि यह सदेव पूजक को यम (मृत्यु के देवता) तथा अन्य भूतादि से बचाता है। रामपर्वतापनी उपनिषद २० में आया है--'यन्त्र की व्यवस्था (या निर्माण) देवता का शरीर है जो सुरक्षा प्रदान करता है।' कौलावलीनिर्णय में ऐसा कहा गया है कि बिना यन्त्र के देवता की पूजा, बिना मांस के तर्पण, बिना शक्ति (पत्नी या कोई अन्य नारी जो साधक से सम्बन्धित हो) के मद्यपान--ये सभी निष्फल होते हैं । कुछ ग्रन्थों ने यन्त्र-गायत्री की भी कल्पना कर डाली।है ।२१ क्त वचनों से यह व्यक्त होता है कि यन्त्र वह तत्त्व था जिसके द्वारा क्रोध, प्रेम आदि के कारण दोलायमान मन की गतियों पर नियन्त्रण किया जाता था और मन को उस चित्र या आकार पर लगाया जाता था जिसमें देवता को प्रतिष्ठापित किया गया रहता था। इससे मनोयोग होता था, और देवता की मानसिक प्रत्यभिज्ञा होती थी। देवता एवं यन्त्र का अन्तर वही है जो आत्मा एवं देह में होता है। त्रिपुरातापनी उपनिषद् (२।३), प्रपञ्चसारतन्त्र (पटल २१ एवं ३४), शारदातिलक (७.५३-६३, २४), कामकलाविकास (श्लोक २२, २६, २६, ३० एवं ३३), नित्याषोडशिकार्णव (१३३१-४३), नित्योत्सव (पृ० ६, ६४-६५), तन्त्रराजतन्त्र (२।४४-५१, ८।३०, २३), अहिर्बुध्न्यसंहिता (अध्याय २३-२६), मन्त्रमहोदधि (२० वीं तरंग), कौलज्ञाननिर्णय (१०, जहाँ यन्त्रों को चक्र कहा गया है), कौलावलीनिर्णय (३। १६. यन्त्र मन्त्रमयं प्रोक्तं देवता मन्त्ररूपिणी। मन्त्रे सा पूजिता देवी सहसव प्रसीदति। काम-क्रोधादिदोषोत्थ सर्वदुःख नियन्त्रणात् । यन्त्रमित्याहुरेतस्मिन् देवः प्रोणाति पूजितः ॥ कुलार्णव० (६८५-८६), इसका प्रथम अर्ध श्लोक वर्षक्रियाकौमुदी (पृ० १४७) द्वारा अगस्त्यसंहिता से उद्धत किया गया है: विना यन्त्रेण पूजा चेद् देवता न प्रसीदति (वही, १०।१०६)। यमभूतादि सर्वेभ्यो भयेभ्योपि कुलेश्वरि । त्रायते सततं चैव तस्माद्यन्त्रमितीरितम् । (वही, १७।६१) । 'यन्त्र' में 'य' यम तथा अन्य लोगों के लिए प्रयुक्त है, 'त्र' को 'त्र' (या 'त्रा') से निष्पन्न माना गया है। विना यन्त्रण या पूजा विना मांसेन तर्पणम्। विना शक्त्या तु यत्पानं तत्सर्व निष्फलं भवेत् ॥ कौलावलीनिर्णय (८।४१-४२) । साभयस्यास्य देवस्य विग्रहो यन्त्रकल्पना । विना यन्त्रेण चेत्पूजा देवता न प्रसीदति ॥ रामपूर्वतापनीयोपनिषद् (१।१२) । २०. यह अवलोकनीय है कि अन्तिम अर्धांश वही है जो अन्तिम अर्धांश कुलार्णव का है (१०.१०६)। देखिए होन-राइख जिम्मर कृत ग्रन्थ 'मीथ्स एण्ड सिम्बल्स इन इण्डियन आर्ट एवं सिविलिजेशन' (पृ० १४०१४८), जहाँ यन्त्र की चर्चा है। और देखिए अहिर्बुध्न्यसंहिता (अध्याय ३६), जहाँ पर सुदर्शनचक्र के निर्माण एवं पूजा का वर्णन है। २१. यन्त्रगायत्री यह है--'यन्त्रराजाय विद्महे वरप्रदाय धीमहि । तन्त्रो यन्त्रं प्रचोदयात् ॥ मेकतन्त्र (३३॥१३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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