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न्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आदि है । ज्ञानार्णवतन्त्र (२४।८-१० एवं २६।१५-१७) में ऐसा आया है कि मण्डल एवं चक्र एक-दूसरे के समानार्थी हैं और मण्डल का आलेखन एक मण्डप में वेदी पर कुंकुम या सिन्दूर रंग के चूर्ण से ६ कोणों में होना चाहिए। और देखिए महानिर्वाणतन्त्र (१०।१३७-१३८) । मण्डल-क्रियाओं की चार विशेषताएँ हैं-मण्डल, मन्त्र, पूजा एवं मुद्रा।
बौद्ध तन्त्रों में भी मण्डलों का प्रभूत उल्लेख है। मञ्जुश्रीमुलकल्प में मण्डलों के आलेखन की विशिष्ट विधियों एवं रँगने की चर्चा की गयी है । गुह्यसमाजतन्त्र में बीच में चक्र वाले, १६ हाथ के एक मण्डल का उलेख है। देखिए प्रो० जी० टुस्सी का ग्रन्थ 'इण्डोतिब्बेतिका' (जिल्द ४, भाग १, रोम १६४१); जिसमें मण्डलों की तालिकाएँ दी हुई हैं; ए० गेट्टी कृत 'दि गॉड्स आव नार्दर्न बुद्धिज्म' (१६०८), प्लेट १६, जहाँ नौ तत्वों का एक मण्डल प्रदर्शित है ; 'ऐक्टा ओरिऐण्टालिया आव दि ओरिएण्टल सोसाइटीज़ आव डेनमार्क, नार्वे आदि' में एरिक हाई कृत 'कण्ट्रीब्यूशंस टु दि स्टडी आव मण्डल एण्ड मुद्रा' (पृ० ५७-६१, जिल्द २३, सं० १ एवं २, १६५८), जिसमें अन्त में लगभग १०० मुद्राओं के चित्र दिये गये हैं । बंगाल के राजा रामपाल (१०८४-११३० ई.) के समकालीन अभयंकर गुप्त के ग्रन्थ निष्पन्नयोगावलि (गायकवाड ओरिएण्टल सीरीज़, बड़ोदा) में २६ अध्यायों में २६ मण्डलों का वर्णन है, जहाँ प्रत्येक मण्डल में एक केन्द्रीय देवता रहता है तथा बहुत-सी लघु बौद्ध दिव्यात्माओं का, जो कभी-कभी संख्या में एक सौ भी हो जाती हैं, आलेखन है ।
निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रकाशित 'ऋग्वेदब्रह्मकर्मसमुच्चय' (छठा संस्करण, बम्बई, १६३६) में जो कृत्यों का एक संकलन है, आरम्भ में ही कतिपय मण्डलों का, यथा--सर्वतोभद्र, चतुलिंगतोभद्र, प्रासाद वास्तुण्डल, गहवास्तुमण्डल, ग्रहदेवतामण्डल, हरिहरमण्डल, एकलिंगतोभद्र के चित्र हैं, जो रंगीन एवं सादे दोनों रूपों में अंकित हैं। स्मतिकौस्तुभ ने द्वादशलिंगतोभद्र हरिहर-मण्डल का, जिसके भीतर सर्वतोभद्र भी है. उल्लेख किया है। हम इनका वर्णन यहाँ नहीं करेंगे । 'सर्वतोभद्र' का शाब्दिक अर्थ है 'सभी प्रकारों से शभ'। यह शुभ चित्रकाव्य-शास्त्र के अन्तर्गत भी समाविष्ट हो गया । काव्यादर्श में दण्डी ने सर्वतोभद्र के रूप में एक श्लोक का उदाहरण दिया है, जो 'चित्र-बन्धों' के लिए प्रयुक्त हुआ है । दण्डी से लगभग एक शती पर्व के किरातार्जुनीय (१५।२५) में सर्वतोभद्र का उदाहरण आया है।
'एक्टा ओरिएण्टालिया' में दो तिब्बती पाण्डुलिपियों के विषयों की एक सुन्दर व्याख्या उपस्थित की गयी है। एक पाण्डलिपि में चावल-मण्डल है जिसमें विभिन्न नामों में ३७ तत्त्व प्रकट किये गये हैं और इसी में मुद्राओं के १२३ चित्र प्रदर्शित हैं।
तन्त्र-पूजा का एक अन्य विशिष्ट विषय है यन्त्र (ज्यामितीय आकृति), जो कभी-कभी चक्र नाम से भी विख्यात होता है । यन्त्र का उल्लेख कुछ पुराणों में भी हुआ है और यत्र-तत्र आधुनिक प्रयोगों में भी इसकी चर्चा होती है। यह धातु, पत्थर, कागद या किसी अन्य वस्तु पर खोदा हुआ या तक्षित या खींचा हआ या रंगा हुआ होता है । यह मण्डल से मिलता-जुलता है, अन्तर यह है कि मण्डल का उपयोग किसी देवता की पूजा
१८. प्राहुरर्धभ्रमं नाम श्लोकार्धभ्रमणं यदि । तदिष्टं सर्वतोभद्रं भ्रमणं यदि सर्वतः ॥ काव्यादर्श ३॥ ५० । किरातार्जुनीय (सर्ग १५, श्लोक २५) में यों आया है : सर्वतोभद्रः--देवाकानिनिकावादे वाहिकास्वस्वकाहि वा । काकारभभरे काका निस्वभव्यव्यभस्वनि ॥
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