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धर्मशास्त्र का इतिहास
में मण्डल के वर्गागार स्वरूप की ओर संकेत किया गया है" । मत्स्यपुराण में कतिपय वक्तव्यों में मण्डलों की ओर संकेत है, जो पाँच रंगों के चूर्णो से बनते थे ( यथा ५८।२२ ) । इसमें १२ या ८ दलों वाले कमल की ओर भी संकेत है जो पीले या लालचन्दनलेप या विभिन्न रंगों से खचित होते थे (७२/३०; ६२।१५ ; ६४।१२-१३; ७४।६-६ जहाँ आठ दलों वाले कमल का चित्र है और सूर्य पूजा के लिए घेरेदार गड्ढे का उल्लेख है)। वाराहमिहिर ने बृहत्संहिता ( अध्याय ४७ ) में पुष्पस्नान नामक एक पवित्र क्रिया का उल्लेख किया है जिसमें विभिन्न रंगों वाले चूर्णों से पवित्र भूमि पर मण्डल बनाने की ओर संकेत है, जिसमें देवताओं, ग्रहों, नक्षत्रों आदि के स्थान निर्धारित रहते थे १६ । ब्रह्मपुराण (२८|२८ ) में कमल - चित्र पर सूर्य के आवाहन का उल्लेख है और एक अन्य स्थान ( ६१ ।१ - ३ ) पर कमल के रूप में मण्डल पर नारायण की पूजा की ओर संकेत हैं, जिसे रघुनन्दन ने पुरुषोत्तम-तत्त्व ( पृ० ५६६ ) में उद्धृत किया है । हर्षचरित (७वीं शती का पूर्वार्ध) में कई रंगों से खचित एक बड़े मण्डल का उल्लेख है" और देखिए वराहपुराण (६६ ६-११ ) जहाँ मण्डल में लक्ष्मी एवं नारायण की प्रतिमाओं या चित्रालेखनों की पूजा की चर्चा है । अग्निपुराण (अध्याय ३२० ) में आठ मण्डलों, सर्वतोभद्र आदि का उल्लेख है । शारदातिलक ( ३ ॥ ११३-११८, १३१-१३४, १३५-१३६, नवनाभ मण्डल), ज्ञानार्णव० (२६।१५ - १७) आदि में कई मण्डलों का वर्णन है । अमरकोश (२, पुरवर्ग) के मतानुसार सर्वतोभद्र राजाओं एवं धनिकों के भवन का एक प्रकार है । शारदातिलक ( ३।१०६ - १३० ) में सर्वतोभद्र के निर्माण का वृहद् उल्लेख है और ऐसा कहा गया है कि यह सभी प्रकार की पूजा में प्रयुक्त होता है (मण्डलं सर्वतोभद्रमेतत्सधारणं स्मृतम् । ) । इसमें ( ३।१२२-१२४) आया है कि मण्डल का आलेखन पाँच रंगों के चूर्णों से होना चाहिए, यथा-- हल्दी के चूर्ण से पीला, चावल के चूर्ण से श्वेत, कुसुम्भ चूर्णं से लाल, अधमुने मोटे अन्नों के चूर्ण से काला, जिस पर दूध छिड़का गया हो, तथा बिल्व की पत्तियों के चूर्ण से हरा रंग । इसी प्रकार प्रपंचसार ( ५/६४-६५), अग्निपु० (३०।१६-२० ) आदि में रंगों का विधान है । रघुनन्दन के वास्तुयागतत्त्व ( पृ० ४१६ ) में शारदातिलक ( ३।१२३-१२४ ) का उद्धरण
१५. चतुरमं मण्डलं चिकीर्षन् मध्यात् कोट्यां निपातयेत् । पार्श्वतः परिकृष्णातिशयतृतीयेन सह मण्डलं परिलिखेत् । सा नित्या मण्डलम् । यावद्धीयते तावदागन्तु । मण्डलं चतुरस्त्रं चिकीर्षन् विष्कम्भं पंचदशभागान् कृत्वा द्वावद्धरेत् । त्रयोदशावशिष्यन्ते सा नित्या चतुरश्रमम् । आपस्तम्बशुल्बसूत्र ( ३।२ - ३ ) । मिलाइए कात्यायन का शुल्बसूत्र जो राघवभट्ट द्वारा ( शारदातिलक ३।५७) उद्धत है। देखिए विभूतिभूषण दत्त (कलकत्ता, १६३२ ) लिखित 'दि साइंस आव दि शुल्ब' (आरम्भिक हिन्दू ज्यामेट्री का एक अध्ययन ), पृ० १४० । वैदिक यज्ञों में तीन अग्नि कुण्ड थे, यथा--गार्हपत्य, आहवनीय एवं दक्षिणाग्नि और वे क्रम से वृत्ताकार, वर्गाकार एवं अर्धवृत्ताकार होते थे । और वे सभी क्षेत्रफल में बराबर होते थे । आपस्तम्ब शुल्बसूत्र में क्षेत्रफल निकालने की विधि की ओर संकेत है, क्योंकि वह उन आकारों को बराबर (क्षेत्रफल में ) कहता है ।
१६. तस्मिन् मण्डलमालिख्य कल्पयेत्तत्र मेदिनीम् । नानारत्नाकरवतों स्थानानि विविधानि च । वर्णविविधः कृत्वा हृद्यर्गन्ध गुणान्वितः । यथास्वं पूजयेद्विद्वान्गन्धमाल्यानुलेपनः । बृहत्संहिता ( ४७१२४) । यहाँ 'तस्मिन' से तात्पर्य है 'भूप्रदेश' ।
१७. महामण्डलेमिवाने कवर्णरागमालिखन्तं ... शिवबलिमिव दिक्षु विक्षियन्तं (भैरवाचार्य...) ददर्श । हर्षचरित (३) ।
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