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भ्यास मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आदि सम्मुख एवं प्रार्थना, सभी देवों की पूजा में प्रयुक्त होती हैं। कुछ केवल विष्णु-पूजा के लिए कुछ सूर्य, लक्ष्मी एवं दर्गा की पूजा के लिए हैं और अन्तिम दो, यथा-अञ्जलि एवं संहार, सभी देवों के लिए प्रयक्त होती हैं। आदिनकप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक अंश) ने २४ मुद्राओं का उल्लेख किया है जो गायत्री-जप के समय प्रदर्शित होती हैं और वे देवीभा गवत (११।१६।६८-१०२) में भी पायी जाती हैं, किन्तु वे ब्रह्म से उद्धृत मानी गयी हैं १३ । 'ब्रह्म' शब्द से किस ग्रन्थ की ओर संकेत है, कहना कठिन है । मुद्राओं का प्रचलन सार्वभौमिक नहीं था । धर्मसिन्धु एवं संस्कार-रत्नमाला से प्रकट होता है कि न्यास एवं मद्रा कम-से-कम महाराष्ट्र में अवैदिक कहे जाते थे१४ ।
तान्त्रिक पूजा का एक अंग था मण्डल जो मध्य एवं आधुनिक कालों में कट्टर हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त होता रहा है। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि संस्कृत-लेखकों ने इसे तान्त्रिकों से उधार लिया है । मण्डल शब्द वृत्त या चक के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तै० सं० (५।३।६।२) में वृत्ताकार ईंटों (मण्डलेष्टका) का उल्लेख है; और देखि ए शत० ब्रा० (४।१।१।२५) सूर्य का चक्र या मण्डल पहिया (चक्र) कहा गया है (ऋ० ४।२८१२, २२६१०) बृह० उप० (शश२) में आया है--'यह आदित्य वह है जिसे सत्य कहा गया है, और सूर्य के मण्डल में पुरुष की ओर संकेत भी किया गया है (तद्यत्सत्यमसौ स आदित्यो य एव एतस्मिन्मण्डले पुरुषो पश्चायं दक्षिणेऽक्षन् पुरुषः) । और देखिए दही, (२।३।३) । आगे चलकर वही बेदी पर खींचा गया चित्र या आकार (सामान्यतः वृत्ताकार) बन गया । आपस्तम्ब एवं कात्यायन के शुल्बसूत्रों
१३. वरदाभयमुद्रे च वरदाभयवत् प्रिये । ज्ञानार्णवतन्त्र (४।३६); जयाख्यसंहिता (८११०४-५) में वर एवं अभय को परिभाषा इस प्रकार दी हुई है : सुस्पष्टं दक्षिणं हस्तं स्वात्मनस्तु पराङमुखम् । पराङमुखं लम्बमानं वामपाणि प्रकल्पयेत् । क्रमाद्वरा भयाख्यं तु इदं मुद्राद्वयं द्विज । विज्ञेयं लोकपालनामिन्द्रादीनां समासतः । देखिए भूमिस्पर्श मुद्रा के लिए ए० कुमारस्वामी कृत 'बुद्ध एण्ड दि गॉस्पेल आव बुद्ध' (लण्डन, १६१६, पृ० २६२) जहाँ १८वीं शती का चित्र है (यह चित्र लंका का है), और देखिए प्रो० ग्रुनवेडेल कृत 'बुद्धिस्ट आर्ट इन इण्डिया' श्री अग्नेस सी. गिब्बन द्वारा अनूदित , पृ० १७८, चित्र १२६ । देखिए धर्मचक्र मुद्रा के लिए वही कुमारस्वामी का ग्रन्थ पृ० ३८ एवं ३३० जहाँ क्रम से गुप्तकाल एवं गन्धार (प्रथम या द्वितीय शती) के वित्र हैं। और देखिए डा० बी० भट्टाचार्य का ग्रन्थ 'बुद्धिस्ट आइकॉनॉग्राफी' (प्लेट ३८) । देखिए ए० एवालोन कृत 'सर्पेण्ट पावर' (५वा संस्करण, १६५३, पृ० ४८०, ४८८) जहाँ सिद्धासन में योगीमुद्रा का तथा महामुद्रा का क्रम से अंकन है जो आज भी योगाभ्यासियों द्वारा प्रयुक्त होती हैं। और देखिये मेम्वायर्स आव आर्यालॉजिकल सर्वे आव इण्डिया सं० ६६, प्लेट १३ (अभयमुद्रा के लिए) । 'बुद्धिस्ट आर्ट इन इण्डिया (उपर्युक्त) पृ० १६२ (मैत्रय की अभय मुद्रा के लिए जो स्वात से प्राप्त किया गया है) तथा वी० ए० स्मिथ लिखित 'हिस्ट्री आव फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन' (संस्करण १६३०), 'लेट ११३, जहाँ जावा से प्राप्त अभय मुद्रा का चित्र है । और देखिए एन० के० भट्टसलि कृत 'आइकॉनॉग्राफी आव बद्धिस्ट एण्ड ब्रीनिकल स्कल्पचर्स इन दि ढाका म्यूजियम' (१६२६), प्लेट ८, जहाँ बुद्ध की भूमिस्पर्शमुद्रा का अंकन है, प्लेट २० एवं २१, जहाँ दाहिने हाथ को वरद मुद्राओं का चित्र है।
१४. संस्काररत्नमाला (जो अपेक्षाकृत एक आधुनिक ग्रन्थ है) में कथन है (पृ० २२६) कि न्यास अवैदिक है : '.. एतमेके नेच्छन्ति स ह विधिरवैदिक इति ।'
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