________________
-
धर्मशास्त्र का इतिहास
में धनिकों के विलास हैं, आर्त लोगों की चिन्ता की नाशक हैं, मूों के लिए उपदेश हैं, स्त्रियों के सौभाग्य की वर्धक हैं, वे अपशकुनों को दूर करने, समृद्धि को बढ़ाने एवं वाञ्छित पदार्थों की उपलब्धि के लिए वासुदेव द्वारा निर्मित हैं ।।
- बौद्धों में भी मुद्राओं का प्रयोग था। महायान शाखा के प्रारम्भिक ग्रन्थों में आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प (३५ वा पटल, पृ. ३५५-३८१) में मुद्राओं का उल्लेख है। पृ० ३८० पर १०८ की संख्या दी हुई है। पृष्ठ ३७२ पर अभयमुद्रा एवं वरमुद्रा का उल्लेख है । एल० एच० वैड्डेल ने 'दि बुद्धिज्म आव तिब्बत और लामाइज्म' (लण्डन, १८६५) में लामाओं द्वारा तिब्बत में प्रयुक्त ६ मुद्राओं का उल्लेख किया है (पृ० ३३६. ३३७) । - इण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्द २६,१८६७, पृ० २४-२५) में बर्गेस ने ६ बौद्ध मुद्राओं का उल्लेख किया है (जो वैड्डेल से भिन्न हैं), यथा--भूमिस्पृश् या भूमिस्पर्श मुद्रा, शाक्य बुद्ध की एक मुद्रा जो पृथिवी के साक्ष्य के रूप में उद्घोषित है; (२) धर्मचक्र मुद्रा (शिक्षा देने की मुद्रा); (३) अभयमुद्रा (आशीर्वाद देने की मुद्रा) जिसमें बायाँ हाथ पल्थी पर खुला रहता है, दायाँ हाथ वक्षस्थल के समक्ष उठा रहता है, अंगुलियाँ एवं अंगूठा आधे फैले रहते हैं और हथेली आगे की ओर रहती है; (४) ज्ञानमुद्रा (ध्यान मुद्रा ? ) या पद्मासनमुद्रा (ध्यान करने की मुद्रा); (५) वर या वरदमुद्रा, जिसमें दाहिना हाथ घुटने पर झुका रहता है, हथेली बाहर खुली रहती है मानो दान का प्रतीक हो; (६) ललितमुद्रा (ऐन्द्रजालिक या मोहक); (७) तर्कमुद्रा (दायाँ हाथ वक्षस्थल की ओर उठा हुआ और थोड़ा सा आकुंचित); (८) शरणमुद्रा (आश्रय या रक्षा की मुद्रा); (६) उत्तरबोधि मुद्रा (परम ज्ञान की मुद्रा, जो बहुधा धर्मचक्र मुद्रा की भ्रान्ति उत्पन्न करती
जैन लोग भी मुद्रा-प्रेमी थे। जे० ओ० आई० (बड़ोदा) के खण्ड ६, (सं० १, पृ० १-३५) में डा० प्रियबल शाह ने दो जैन ग्रन्थों पर एक सुन्दर निबन्ध लिखा है, जिनमें एक है मुद्राविचार, जिसने ७३ मुद्राओं का और दूसरा है मुद्राविधि, जिसने ११४ मुद्राओं का उल्लेख किया है।
. 'रायल कांक्वेस्ट एण्ड कल्चरल माइग्रेशंस' कलकत्ता, १६५५ नामक पुस्तक में श्री सी० शिवराममति ने प.० ४३ पर लिखा है कि चिदम्बरम के गोपुर में जो हस्तों एवं करणों के रूप मिलते हैं वे जावा में प्रम्बनन के शिव मन्दिर में भी पाये जाते हैं और वहां पताका, त्रिपताक, अर्धचन्द्र, शिखर, कर्तरीमुख, शुचि ऐसे करणों तथा अञ्जलि, पुष्पपुट ऐसे हस्तों का अंकन है । 'कण्ट्रीब्यूशंस टु दि हिस्ट्री आव दि इण्डियन ड्रामा' (कलकत्ता, १६५८) में डा० मनमोहन घोष ने ऐसा कहा है कि (बेयॉन अंगकोर थॉम) के उभरे हुए नक्षित (नकाशे हुए) चित्रों (आकृतियों) में जो नृत्य एवं नाटक के स्वरूप अभिव्यंजित होते हैं और जो आज भी कम्बोडिया के राजघराने में नृत्य के भाव आदि देखने को मिलते हैं, वे सभी भारत के नाट्यशास्त्र में वर्णित भाव-मुद्राओं से मिलते-जुलते हैं, यथा-अञ्जलि, पताका, अर्धचन्द्र , मुष्टि , चन्द्रकला एवं कपोत (पृ० ६३)।
१३वीं शती के आगे के कुछ संस्कृत मध्यकालीन धर्मशास्त्र-ग्रन्थ मुद्राओं पर प्रकाश डालते हैं । हेमाद्रि (व्रत, भाग १, प० २४६-२४७) ने मुकुल, पंकज, निष्ठुर एवं व्योम नामक मुद्राओं का उल्लेख किया है। स्मृतिच० (१३वीं शती का पूर्वार्ध) ने २४ मुद्राओं के नाम एवं परिभाषाएँ दी हैं (१, पृ० १४६१४७) । ये नाम देवीभागवत (११।१६।६८-१०२) में भी आये हैं। पूजाप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक अंश) ने ३२ मद्राओं की चर्चा की है जिनमें से आठ, यथा-आवाहनी, स्थापनी, सन्निधापनी, संरोधिनी, प्रसाद, अवगुण्ठन,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org