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न्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आदि
(अध्याय २६) जहाँ ७ श्लोकों में कुछ मुद्राओं की ओर संकेत हैं। कालिकापुराण ( ७०1३२ ) में कथित है कि कुल १०८ मुद्राएँ हैं, जिनमें ५५ सामान्य पूजा तथा ५३ विशिष्ट अदसरों, यथा सामग्रियों को एकत्र करने, नाटक, नाटन आदि में प्रयुक्त होती हैं ।
ब्रह्माण्डपुराण (ललितोपाख्यान, अध्याय ४२ ) के बहुत-से श्लोक मुद्रानिघण्टु ( पृ० ५५-५७, श्लोक ११०-११८) में भी पाये जाते हैं, किन्तु नृत्य की अधिकांश मुद्राएँ विष्णुधर्मोत्तर में पायी जाती हैं । अध्याय ३२ में इसने गद्य में मुद्राहस्त नामक कतिपय रहस्य (गुप्त) मुद्राओं का उल्लेख किया है, अध्याय ३३ (१-१२४) में एक सौ सामान्य मुद्राओं से अधिक की चर्चा की है और अध्याय के अन्त में उन्हें नृत्तशास्त्रमुद्राएँ (नाट्यशास्त्र सम्बन्धी मुद्राएँ) कहा गया है। इससे एक ऐसे विषय का उद्घाटन हो जाता है जिसकी चर्चा यहाँ नहीं हो सकती; यथा-क्या पूजा की रहस्यवादी हस्तमुद्राएँ भरत के नाट्यशास्त्र ( अध्याय ४, ८ एवं ६ ) में उल्लिखित करणों, रेचकों एवं ३२ अंगहारों से निष्पन्न हुई हैं। यह द्रष्टव्य है कि नाट्यशास्त्र (४।१७१ एवं १७३ ) ने नृत्तहस्तों का उल्लेख किया है।" पाणिनि ( ४ | ३ | ११० १११ ) को शिलाली एवं कृशाश्व के नटसूत्रों के बारे में ज्ञान था । भरत ने अभिनय ( ८1६ - १० ) के चार प्रकार बताये हैं : आंगिक, वाचिक, आहार्य एवं सात्त्विक । नवें अध्याय में हाथों एवं अंगुलियों के लपेट एवं सम्मिलन ( संयोग ) का उल्लेख है । मुष्टि की परिभाषा भी दी हुई है ( ६।५५) मुद्राएँ आंगिक अभिनय के अन्तर्गत आती है; अंगहार करणों पर निर्भर होते हैं तथा करण हाथों एवं पाँवों के विभिन्न संगठनों पर आधारित हैं। यह सम्भव है कि हिन्दू एवं बौद्ध तन्त्र-ग्रन्थों में पायी जाने वाली मुद्राएँ प्राचीन भारतीय नृत्य एवं नाटक में वर्णित मुद्राओं एवं शरीर- गतियों पर आधारित हों और उनके ही विकसित रूप हों । उनके अत्यन्त आरम्भिक स्वरूप नाट्य शास्त्र में पाये जाते हैं तथा नाट्य सम्बन्धी मध्यकालीन ग्रन्थों (ने यथा अभिनयदर्पण १ ) भी उन पर प्रकाश डाला है ।
आर्य मञ्जुश्रीमूलकल्प ( पृ० ३८०) ने १०८ मुद्राओं के नाम और अर्थ दिये हैं । पृ० ३७६ में ऐसा आया है कि मुद्राओं एवं मन्त्रों के संयोग से सभी कर्मों में सफलता मिलेगी और तिथि, नक्षत्र एवं उपवास की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी । विष्णुधर्मोत्तरपुराण में नृत्य - मुद्राओं की बड़ी प्रशंसा गायी गयी है, यथा
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१०. करणैरिह संयुक्ता अंगहाराः प्रकल्पिताः । एतेषामिह वक्ष्यामि हस्तपादविकल्पनम् । नाट्यशास्त्र (४) ३३-३४ । नाट्यशास्त्र ( ४१३४- ५५ ) में वर्णित १०८ अंगहारों के चित्र गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज द्वारा प्रकाशित नाट्यशास्त्र (जिल्ब १) में हैं जो दक्षिण भारत के चिदाम्बरम् के नटराज मन्दिर के गोपुरों से लिये गये हैं ।
११. देखिए अभिनयदर्पण (डा० मनमोहन घोष द्वारा सम्पादित, १६५७, पृ० ४७) जहाँ पर हाथों की कुछ मुद्राएँ शंख, चक्र, सम्पुट, पाश, कूर्म, मत्स्य, वराह, गरुड, सिंहमुख के नाम से पुकारी गयी हैं और मद्रानिघण्टु (तान्त्रिक टेक्ट्स, एवालोन द्वारा सम्पादित, जिल्द १, पृ० ४६, श्लोक ५-७ एवं पृ० ४६-५०, श्लोक ३२ ) में भी वर्णित हैं, जो वैष्णव मुद्राओं की व्याख्या करता है जिनमें से कुछ, यथा गरुड, नाट्यशास्त्र (६।२०१ ) में भी पायी जाती हैं ।
१२. ईश्वराणां विलासं तु चार्तानां दुःखनाशनम् । मूढानामुपदेशं तत् स्त्रीणां सौभाग्यवर्धनम् । शान्तिकं पौष्टिक काम्यं वासुदेवेन निर्मितम् । विष्णुधर्मोत्तर ० ( ३।३४।३०-३१) ।
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