________________
शास्त्र का इतिहांस
होता है जिसमें पुष्प भरे रहते हैं; (२) स्थापनी, इसमें आवाहनी का ही रूप होता है, अन्तर यह होता है कि हाथ एक-दूसरे के ऊपर-नीचे रहते हैं; (३) सन्निधापनी मुद्रा में दोनों हाथ सटकर जुड़े रहते हैं, किन्तु अंगूठे उठे रहते हैं, (४) सन्निरोधिनी में ऊपरवाली स्थिति होती है, किन्तु दोनों अंगूठे मुष्टि के भीतर होते हैं; (५) सम्मुखीकरणी में दोनों बँधी मुष्टिकाएँ (मुट्ठियाँ) उत्तान (ऊपर की ओर ) हों; (६) सकलीकृति में देवता की प्रतिमा के अंगों से अपने ६ अंगों के न्यास का नाट्य करना होता है; (७) अवगुण्डनी में अंगुलियां सीधे बन्द करके हाथ को नीचा करके प्रतिमा के चारों ओर घुमाया जाता है; (८) धेनुमुद्रा ( एक जटिल मुद्रा है) में दाहिने हाथ की कनिष्ठिका को दाहिनी अनामिका पर दाहिनी अनामिका में लपेट कर उसे बायीं अनामिका में लपेट देना, बायीं अनामिका को बायी मध्यमा एवं बायें अंगूठे के ऊपर रखना, पुनः दाहिनी मध्यमा से लपेट कर दाहिनी तर्जनी के पास लाना तथा दाहिनी तर्जनी को बायीं मध्यमा से मिलाना; (६) महामुद्रा में दोनों अंगूठों को लपेटा जाता है और अन्य अंगुलियाँ सीधी रहती हैं ।
योग सम्बन्धी कुछ ग्रन्थों में कतिपय मुद्राएं वर्णित हैं, यथा हठयोगप्रदीपिका (३१६-२३) ने दस मुद्राओं एवं घेरण्ड संहिता ( ३११-३ ) ने २५ मुद्राओं का उल्लेख किया है। शिवसंहिता ( ४ । १५-३१) ने १० मुद्राओं को उत्तम कहा है। हठयोग में एक महत्त्वपूर्ण मुद्रा है खेचरीमुद्रा, जो देवीभागवत ( ११/६६ ६२-६५), शिवसंहिता (४१३१-३३), घेरण्डसंहिता ( ३१२५-२७), हठयोगप्रदीपिका ( ३।३२-५३ ) में वर्णित है । किन्तु यह वर्णन ज्ञानार्णव ० ( १५/६१-६३ ) एवं नित्याषोडशिकाव ( ३।१५-२३ ) में उल्लिखित खेचरी के वर्णन से भिन्न है । वज्रोलीमुद्रा ( हठयोगप्रदीपिका ३१८२-६६ ) का वर्णन यहाँ नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अश्लील है, ऐसा कहा हुआ है। कि संभोग सम्बन्धी क्रियाओं के होने पर भी योगी की आयु इस मुद्रा से बढ़ती है। कुछ पुराणों में मुद्राओं का विशद वर्णन | कालिकापुराण मे ६६ वें अध्याय में अंगन्यास करन्यास एवं ७०।३६-५६ तथा ७८ ३-६ में धेनुमुद्रा, योनिमुद्रा, महामुद्रा एवं खेचरी मुद्रा का उल्लेख है । देवीभागवत ( ११।१६।६८-१०२ ) ने गायत्री जप के समय की २४ मुद्राओं का उल्लेख किया है। ब्रह्मपुराण (६१।५५ ) एवं नारदीयपुराण (२२५७१५५-५६ ) ने विष्णु-पूजा में आठ मुद्राओं की व्यवस्था दी है' । देखिए अग्निपुराण
तन्त्रवेदिभिः । अंगुष्ठगर्भिणी सेव सन्निरोधे समीहिता ॥ उत्तानो द्वौ कृतो मुष्टी संमुखीकरणी स्मृता । देवतागे षडङ्गानां न्यासः स्यात्सकलीकृतिः ॥ सव्यहस्तकृता मुष्टिदर्घाधोमुखतर्जनी । अवगुण्ठनमुद्रेयमभितो भ्रामिता सती ॥ अन्योन्याभिमुखाश्लिष्टकनिष्ठानामिका पुनः । तथा च तर्जनीमध्या धेनुमुद्रा समीरिता । अमृतीकरणं कुर्यात्तया वेशिकसत्तमः । अन्योन्यप्रथिताङ्गुष्ठा प्रसारित कराङगुली ॥ महामुदेयमुदिता परमीकरणे बुधैः । प्रयोजयेदिमा मुद्रा देवतायागकर्माणि ॥ शारदा० (२३।१०७ - ११४)
( ६ ) पद्म शंखश्च श्रीवत्सो गदा गरुड एव च । चक्रखङ्गश्च शाङ्गंच अष्टो मुद्राः प्रकीर्तिताः । ब्रह्म (६१।५५), नारदीय ( २।५७।५५-५६) । यह अवलोकनीय है कि ये मुद्राएँ तान्त्रिक टेक्ट्स ( जिल्द १ ) में वर्णित १६ विष्णुमुद्राओं में सम्मिलित हैं । श्रीवत्स को छोड़ कर ये सभी पूजाप्रकाश ( पू० १२४ - १२५ ) में संज्ञापित एवं व्याख्यापित हैं । पूजाप्रकाश (५० १३६) में व्यवस्था दी हुई है कि विष्णु पूजा में आवाहन 'सहस्रशीर्ष' (ऋ० १० १६० १ ) नामक मन्त्र के साथ होना चाहिए और १४ मुद्राएँ प्रदर्शित होनी चाहिए, जो ये हैं : 'सहस्रशीर्जे तिमन्त्रेणावाहनं कुर्यात् । तत आवाहनाविचतुर्वशमुद्राः प्रदर्शयेत् । साश्च आवाहनी स्थापनी संमुलकरणी सन्निरोषिनी प्रसादमुद्रा अवगुण्ठनमुद्रा शंखचक्रगदापद्ममुसलखङ्गधनुर्वाणमुद्राः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org