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म्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आदि . बाली द्वीप वासी बौद्ध एवं शैव पुजारी लोगों द्वारा मुद्राओं के प्रयोग के विषय में मिस टीरा डि क्लीन का एक ग्रन्थ है, जिसकी ओर इस महाग्रन्य के खण्ड-२ में लिखा जा चुका है (देखिए अंग्रेजो सस्करग, जिल्द २, पृ० . ३२०-३२१) । यहाँ हम थोड़ा विस्तार के साथ उसका उल्लेख करेंगे। - तन्त्र, पुराण एवं योग के ग्रन्थों में मुद्राओं की संख्या, नामों एवं परिभाषाओं के विषय में बड़ा मतभेद है। कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं ।
तान्त्रिक टेक्ट्स (जिल्द १, पृ० ४६-४७) में मुद्राओं के नामों एवं परिभाषाओं का एक निघण्टु (शब्दकोश या वर्णन) है जिसमें ऐसा कथित है कि ६ मुद्राएँ (आवाहनी आदि) अधिक प्रचलित हैं (जो किसी भी पूजा में प्रयुक्त की जाने योग्य हैं) और फिर विष्णु-पूजा सम्बन्धी मुद्राओं का उल्लेख है (कुल १६, यथा-शंख, चक्र, गदा, पप, वेणु, श्रीवत्स, कौत्सुभ, वनमाला, ज्ञान, विद्या, गरुड़, नारसिंही, वाराही, हयग्रीवी, धनुस्, बाण, परशु, जगन्मोहिनी, बाम)। शिव की, दस मुद्राएँ ये हैं-लिंग, योनि, त्रिशूल, अक्षमाला, अभीति अर्थात् अभय, मृग, असिका, खट्वांग (गदा जिसके सिर पर खोपड़ी हो), कपाल, डमरू । सूर्य की एक मुद्रा है--पद्म । गणेश के लिए मुद्राएँ हैं, यथादन्त, पाश, अंकुश, अविघ्न, पशु, लड्डुक, बीजपूर (जंभीर नीबू या चकोतरा)।
शारदातिलक (२३।१०६-११४) ने केवल ६ मुद्राओं का उल्लेख किया है और उनकी परिभाषाएँ दी हैं, विष्णुसंहिता (७) के अनुसार मुद्राएँ अगणित हैं (श्लोक ४५) और उसने ३० के नामों एवं परिभाषाओं का उल्लेख किया है तथा ज्ञानार्णव० (४) ने कम-से-कम १६ मुद्राओं का उल्लेख किया है । जयाख्यसंहिता (८वाँ पटल) में ५८ मुद्राओं की चर्चा है। तान्त्रिक ग्रन्थों (विष्णुसंहिता, ७।४४-४५; महासंहिता, जिसे राघवभट्ट ने शारदा० के श्लोक २३-११४ की टीका में उद्धृत किया है। स्मृतिच०, १, पृ० १४८) में ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि मुद्राओं का सम्पादन गुप्त रूप से (वस्त्र के) भीतर होना चाहिए न कि बहुत-से लोगों के समक्ष, उसका उल्लेख किसी और से नहीं करना चाहिए, नहीं तो वे निष्फल हो जाती हैं। पुण्यानन्दकृत कामकलाविलास ने स्पष्ट रूप से त्रिखण्डामुद्रा का नाम लिया है और ६ मुद्राओं का उल्लेख किया है। देखिए नित्याषोडशिकार्णव (तीसरा विश्राम) जहाँ १० मुद्राओं की चर्चा है, यथा--त्रिखण्डा, सर्वसंक्षोभकारिणी, सर्वविद्राविणी, आकर्षिणी, सर्वाकेशकरी, उन्मादिनी, महांकुशा, खेचरी, बीजमुद्रा एवं योनिमुद्रा।
ज्ञानार्णवतन्त्र (४।३१-४७ एवं ५१-५६ तथा ११४७-६८) ने ३० से अधिक मुद्राओं के नाम गिनाये हैं, जिनमें से कतिपय नित्याषोडशिकार्णव के नामोंवाली हैं, उनकी परिभाषाएँ भी उसी प्रकार हैं और भास्करराय ने नित्याषोडशिकार्णव की टीका में उन्हें उद्धृत भी किया है। हम यहाँ शारदातिलक (२३।१०७-११४) में दी हुई ६ मुद्राओं का उल्लेख कर रहे हैं -(१) आवाहनी, जिसमें दोनों हाथ जोड़े जाते हैं, किन्तु बीच में खोखला
७. ये मुद्राएँ, मुद्रालक्षण अन्य में वर्णित हैं (डकन कालेज, पाण्डुलिपि संख्या २६१, १८८७-६१) । इनमें से कुछ मुद्राएँ, जो कुछ देवताओं के विषय में हैं, विष्णुसंहिता (७) एवं ज्ञानार्णव० (४) में हैं । मुद्रानिघण्ट ने शक्ति, अग्नि, त्रिपुरा एवं अन्य देवों को मुद्राओं के नाम एवं परिभाषाएं दी हैं । विष्णु-पूजा में प्रयुक्त होने वाली मुद्राएँ, यथा-शंख, चक्र, गदा, पद्म, कौत्सुभ, श्रीवत्स, वनमाला, वेणु आदि नारवतन्त्र नामक अन्य में उल्लिखित हैं जिन्हें वर्षक्रियाकौमुदी ने उद्धत किया है (पृ० १५४-१५६)।
(८) सम्यक् सम्पूरितः पुष्प कराभ्यां कल्पितोञ्जलिः । आवाहनी समाख्याता मुद्रा देशिकसत्तमः ॥ मधोमुखी कता सैव प्रोक्ता स्थापनकर्मणि । आश्लिष्टमुष्टियुगला प्रोन्नताङ गुष्ठयुग्मका ॥ सन्निधाने समृद्दिष्टा मुद्रेयं
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