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धर्मशास्त्र का इतिहास संयुक्त करने से प्रकट होता है। मुद्रा पंचमकारों में चौथा भकार है और उसका तात्पर्य है विभिन्न प्रकार के अन्न जो घृत से संयुक्त हों या ऐसे अन्न जो भुने हुए हों। मुद्रा का चौथा अर्थ है वह नारी जिससे तान्त्रिक योगी अपने को सम्बन्धित करता है (प्रज्ञोपाय० ५।२४ एवं सेकोद्देशटीका, पृ. ५६)। कुलार्णव ने इसे 'मुद' (मोद, प्रसन्नता) से एवं 'द्रावय' ('द्रु' का हेतुक) से निष्पन्न माना है और उसने ऐसा कहा है कि मुद्राओं का प्रदर्शन (पूजा में) होना चाहिए और वे इसीलिए प्रसिद्ध हैं कि उनसे देवता लोग प्रसन्न होते हैं और उनके मन द्रवीभूत हो जाते हैं (वे पूजकों पर कृपा करते हैं)। किन्तु शारदातिलक (२३।१०६) ने इसे 'मुद्' एवं 'रा' (देना)। से व्युत्पन्न माना है और इसके मत से मुद्रा का अर्थ है 'जो देवों को आनन्द देती है। कुछ अन्य व्युत्पत्तियाँ भी हैं (देखिए जे० ओ० आर०, बड़ौदा, जिल्द ६, पृ० १३) । राघवभट्ट का कथन है कि अँगूठे से कनिष्ठिका तक को अंगुलियाँ पंच तत्त्व के समान हैं अर्थात् वे क्रम से आकाश, वायु, अग्नि, सलिल एवं पृथिवी हैं, उनके सम्मिलन से देवता प्रसन्न एवं अनुग्रहशील होते हैं, और वे उपस्थित होते हैं, विभिन्न उचित मुद्राओं का प्रयोग पूजा, जप एवं ध्यान में होना चाहिए; मुद्राओं का प्रयोग उन सभी कृत्यों में होना चाहिए जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, क्योंकि उनसे देवता पूजक के पास उपस्थित होते हैं । ऐसा समझा जाता था कि मुद्राओं से पूजा करने वाले का मन योग बढ़ जाता है। सातवीं शती में भी ऐसा विश्वास था कि विष के प्रभाव से मूच्छित व्यक्ति को मुद्राओं से पुनर्जीवित किया जा सकता है, जैसा कि कादम्बरी (उत्तर भाग) से प्रकट होता है। वर्षक्रियाकोमुदी में ऐसा आया है कि जब तक उचित मुद्राएं न हों जप, प्राणायाम, देव-पूजा, योग, ध्यान एवं आसन फलप्रद नहीं होते।
'मुद्रा' शब्द अगस्त्य की पत्नी के नाम लोपामुद्रा में भी आया है, जो ऋग्वेद (१।१७६४) में उल्लिखित है (लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तम् ॥)। 'मुद्रा' शब्द अमरकोश में नहीं आया है।
५. मुदं कुर्वन्ति देवानां मनांसि द्रावयन्ति च । तस्मान्मुद्रा इति ख्याता दशितव्याः कुलेश्वरि ॥ कुलार्णव० (१७१५७) । मुदं कुर्वन्ति देवानां राक्षसान्द्रावयन्ति च ॥ विष्णुसंहिता (७४३); आवाहन्यादिका मुद्राः प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम् । याविरचिताभिस्तु मादन्ते सर्वदेवताः । शारदा० (२३३१०६) जिस प्रकार राघवभट्ट की टीका है 'रा दाने' । मुदं राति ददातीति मुद्रेति निर्वचनम् ।...अत एव दद्दर्शनेन देवताहर्षोत्पत्तिः । स्वाङ पुल्यो हि पंचभूतात्मिका अंगुष्ठाद्या आकाशवाय्वाग्निसलिलभूरूपास्तासां मिथः संयोगरूप संकेतात्कोपि देवताप्रगुणीभावपूर्वको मोदःसानिध्यकरो भवति । तदुत्तम् । पृथिव्यादीनि भूतानि कनिष्ठाद्या क्रमान्मताः । तेषामन्योन्यसम्भेदप्रकारंस्तत्प्रपञ्चता ।' योगिनीहृदय (१९५७) ने इस शब्द की व्युत्पत्ति कुलार्णव के समान की है।
६. अर्चने जपकाले तु ध्याने काम्ये च कर्मणि । तत्तन्मुद्रा प्रयोक्तव्या देवतासंनिधापकाः (पूजाप्रकाश द्वारा उद्धत, १० १२३) । राघवभट्ट ने भी शारदा० (२३॥३३६) पर उद्धत किया है--स्नाने चावाहने चैव प्रातिष्ठायां च रक्षणे। नैवेद्ये च तथान्ने च तत्तत्कर्मप्रकाशवे । स्थाने मुद्राः प्रकर्तव्याः स्वलक्षणसंयुताः ॥ तान्त्रिक
ल्द १, पृ० ४६, श्लोक १-३) । मुद्राबन्धाद्ध्यानाद्वा विषप्रसुप्तस्योत्थापने कोदशी युक्तिः । कादम्बरी, उत्तरभाग (चन्द्रापीड को हृदयगति रुक जाने पर शुकनास द्वारा तारापीड को सान्त्वना देने वाली वक्तृता) । मिलाइए आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प (पृ० ३६६) : 'निविषोपि भवेत्क्षिप्रं यो जन्तुविषमूच्छितः । चत्वारिंशति समाख्याता मु । श्रेष्ठा महर्धिका ॥ वर्षक्रियाकौमुदी पृ० १५६ 'मुद्रा विना तु यज्जाप्यं प्राणायामः मुरार्चनम् । योगो ध्यानासने चापि निष्फलानि तु भैरव' ॥ यह श्लोक कालिकापुराण (७०।३५) का है । मेक्तन्त्र (१७४२२) में आया है : 'मुद्राभिरेवतृप्यन्ति न पुष्पाविक पूजनैः। महापूजा कृतातेन येन मुद्राष्टकं कृतम् ॥
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