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भ्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आंद का उल्लेख है। और देखिए मत्स्यपुराण (२२६।२६) जहाँ 'ओं, के साथ न्यास में मन्त्रों के प्रयोग की बात पायो नाती है। करांगन्यास एवं करन्यास, जो गायत्री से सम्बन्धित है, देवीभागवत (११२१६-७६-६१) में वर्णित हैं और वहाँ स्पष्ट रूप से सन्ध्या-पूजा के अंग के रूप में न्यास का नाम आया है। और देखिए देवीभागवत (१११७।२६. ३८) एवं कालिकापुराण (५३।३६) । देवीभागवत (७॥४०।६-८) ने वक्षस्थल, भौहों के मध्य के स्थल, सिर के समान शरीरांगों पर कुछ अक्षरों के न्यास का उल्लेख किया है । बृहद्योगियाज्ञवल्क्य (स्मृतिचन्द्रिका, १, पृ० १६८)' में दाहिने हाथ की अंगुलियों एवं हथेली पर क्रम से गोविन्द, महीधर, हृषीकेश, त्रिविक्रम, विष्णु, माधव के नामों के न्यास का उल्लेख है, जिसे स्मृतिचन्द्रिका ने योगि-याज्ञवल्क्य से उद्धृत किया है और जो आजकल सन्ध्या-पूजा में ज्यों-का-त्यों होता है। और देखिए स्मृतिच० (१, पृ० १४५), अपरार्क (पृ० १४०), शारदातिलक (५२५-८), राघवमट्ट (शारदा० ॥४) तथा महानिर्वाण (५।१७६-१७८)।
उपर्युक्त वचनों से विदित होता है कि न्यास की बात तन्त्र-ग्रन्यों से पराणों द्वारा योगियाज्ञवल्क्य, अपराक (१२ वी शती का पूर्वार्ध) एवं स्मृतिचन्द्रिका के कई शतियों पूर्व ग्रहण की गयी थी। वर्षक्रियाकौमुदी (१६ वीं शती का पूर्वार्ध) से प्रकट है कि इसके बहुत पहले गरुड एवं कालिकापुराणों में न्यास की व्यवस्थाएँ थीं। रघुनन्दन के देवप्रतिष्ठातत्त्व (पृ० ५०५) ने मातृकान्यास एवं तत्त्वन्यास का उल्लेख किया है । वीरमित्रोदय के पूजाप्रकाश मामक विभाग में मातृकान्यास, अंगन्यास एवं गायत्रीन्यास का क्रम से प० १३०, १३१ एवं १३२ पर उल्लेख है। इसी ग्रन्थ के विभाग भक्तिप्रकाश (पृ० ८८-८६) में मातृकान्यास का वर्णन है । आजकल कुछ कट्टर लोग न्यास के दो प्रकारों का प्रयोग करते हैं, यथा-अन्तर्मातका, जिसमें 'अ' से 'क्ष' तक के अक्षरों का न्यास हाथों की अंगुलियों, हाथों की हथेलियों एवं ऊपरी भागों तथा अन्य शरीरांगों, यथा-गला, जननेन्द्रियों, आधार-स्थल, मौहों के मध्य स्थल (जहाँ ६ चक्रों के आसन हैं) पर किया जाता है, तथा बहिर्मातृकान्यास जिसमें सभी मक्षरों (भनुस्वार के साथ) का न्यास सिर से पांव तक के शरीरांगों पर 'भों नमः मूनि' आदि के रूपों में होता है।
'न्यास' शब्द 'अस्' (स्थापित करना) एवं 'नि' से बना है जिसका अर्थ है किसी में या किसी पर रखना या स्थापित करना। कुलार्णव ने इसे यों समझाया है ४-'न्यास इसलिए कहा जाता है कि वहां धर्मपूर्वक उपलब्ध धन रखा या स्थापित होता है और वह भी ऐसे लोगों के साथ जिनके द्वारा सुरक्षा प्राप्त होती है (अत: वक्ष:स्थल तथा अन्य शरीरांगों का अंगुलियों के पोरों से तथा दाहिने हाथ की हथेली से मन्त्रों के साथ स्पर्श करने से साधक या पूजक दुष्ट लोगों के बीच में निर्भयतापूर्वक कार्यशील हो सकता है और देवता के समान हो जाता है)। देखिए जयाख्य संहिता (पटल ११, १-३) । सर जॉन वुझौफ ने न्यास की तुलना ईसाई धर्म में क्रॉस के चिह्न बनाने से की है (७१-७७)
तान्त्रिक क्रिया का एक अन्य विशिष्ट विषय है मुद्रा । मुद्रा शब्द के कई अर्थ होते हैं जिनमें चार का सम्बन्ध तान्त्रिक प्रयोगों से है। यह योग की क्रियाओं में एक आसन है, जिसमें सम्पूर्ण शरीर कार्यशील रहता है। यह धार्मिक पूजा के अंग के रूप में अंगुलियों एवं हाथों का प्रतीकात्मक या रहस्यवादी ढंग है जो एक-दूसरे से
३. अंगुष्ठे चैव गोविन्दं तर्जन्यां तु महीधरम् । मध्यमायां हृषीकेशमनामिक्यां त्रिविक्रमम् । कनिष्ठिक्यां न्यसेविष्णु हस्तमध्ये च माधवम् । स्मृतिच० (१, पृ० १६८) ने इसे योगियाज्ञवल्क्य का माना है ।
४. न्यायोपाजितवित्तानामङगेषु विनिवेशनात् । सर्वरक्षाकराद् देवि न्यास इत्यभिधीयते ॥ कुलार्णव० (१७४५६)
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