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________________ अध्याय २७ न्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, चक्र, मण्डल आदि तान्त्रिक कृत्यों एवं पूजा के महत्त्वपूर्ण अंगों में एक है न्यास, जिसका तात्पर्य है 'शरीर के कुछ अंगों पर अवस्थित होने के लिए किसी देवता या देवताओं, मन्त्रों का मानसिक रूप से आह्वान करना, जिससे शरीर पवित्र हो जाय और पूजा एवं ध्यान करने के योग्य हो जाय।' कुछ ग्रन्थों, यथा---जयाख्यसंहिता (पटल ११), प्रपंचसार (६), कुलार्णव (४।१८) ने न्यास के कई प्रकारों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है; शारदातिलक (४।२६-४१ एवं ॥५-७), महानिर्वाणतन्त्र (३।४१-४३ एवं ५।११३-११८) ने न्यास की कतिपय कोटियों का उल्लेख किया है। राघवभट्ट (शारदातिलक, ४२६-४१) ने न्यास पर किसी विशाल साहित्य से बहत-से उद्धरण दे डाले हैं। न्यास के कुछ प्रकार ये हैं'-हंसन्यास, प्रणवन्यास, मातृकान्यास, मन्त्रन्यास, करन्यास, अंगन्यास, पीठन्यास । प्रणवन्यास की व्याख्या यों हुई है-'ओं आं ब्रह्मणे नमः', 'ओं आं विष्णवे नमः'; इसी प्रकार अन्य नामों की भी व्याख्या दी गयी है (राघवभट्ट, शारदा० २।५८) । अंगन्यास यों व्याख्यायित है--'ओं हृदयाय नमः, ओं शिरसे स्वाहा, ओं शिखायै वषट्, ओं कवचाय हुं, ओं नेत्रत्रयाय (या नेत्रद्वयाय) वाषट्, ओं अस्त्राय फट्' । कतिपय पुराणों में भी न्यास-सम्बन्धी व्यवस्थाएँ पायी जाती हैं। गरुडपुराण (१, अध्याय २६, ३१, ३२) ने अंगन्यास को पूजा, जप एवं होम का अंग माना है। नारदीयपुराण (२।५७।१३-१४), भागवत (६।८, लगभग ४० श्लोक), ब्रह्म (६०।३५-४०) ने मन्त्रों के न्यास के लिए 'ओं नमो नारायणाय', एवं 'ओं विष्णवेनमः' की व्यवस्था दी है। कालिकापुराण (अध्याय ७७) ने मातृकान्यास का उल्लेख किया है। स्मृतिमुक्ताफल (आह्निक, पृ० ३२६-३३१) ने कतिपय उद्धरण दिये हैं, जिनमें शरीर के विभिन्न अंगों पर गायत्री (ऋ० ३।६२।१०) के २४ अक्षरों के न्यास, २४ अक्षरों पर कुछ पुष्पों के रंगों, कुछ देवताओं एवं अवतारों से सम्बन्धित बातों तथा शरीर के अंगों पर गायत्रीपादों के न्यास का वर्णन है। ब्रह्मपुराण (६०।३५-३६) में 'ओं नमो नारायणाय' नामक मन्त्र के न्यास का उल्लेख है, जो अंगुलियों एवं शरीर के अन्य अंगों पर अवस्थित किया जाता है। उसमें करन्यास एवं अंगन्यास (२८२६) का भी उल्लेख है। पद्म० (६१७६१७-३०) ने शरीर में सिर से लेकर पाँव तक के अंगों पर विष्णु के नामों के न्यास का वर्णन किया है। उसमें (८५।२६) 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' के मन्त्र के साथ अंगन्यास एवं करन्यास १. राघवभट्ट ने हंसन्यास को यों समझाया है-हं पुरुषात्मने नमः, स: प्रकृत्यात्मने नमः, हंसः प्रकृतिपुरुषात्मने नमः' (शारदा० ४।२६); आत्मनो देवताभावप्रदानाद्देवतेति च । पदं समस्ततन्त्रेषु विद्वद्भिः समुदीरितम्॥ हृदयशिरसोः शिखायां कवचाक्ष्यस्त्रेषु सह चतुर्थीषु । नत्या हुत्या च वषड् हुं वौषट् फट्पदैः षडङ्ग विधि ॥ प्रपंचसार (६।५-६)। मिलाइए शारदा० (४१३१-३५) एवं महानिर्वाण. (३३१४२), जहाँ इसी प्रकार की व्यवस्थाएँ दी हुई हैं। २. पद्म (६१७६।१७-३०) का आरम्भ एवं अन्त निम्नोक्त ढंग से होता है : शिखायां श्रीधरं न्यस्यशिखायः श्रीकरं तया। हृशोकेशं तु केशेषु मूनि नारायणं परम् ॥ एवं न्यासविधि कृत्वा साक्षान्नारायणो भवेत् । यावन्न व्याहरे. त्किचित् तावद्विष्णुमयः स्थितः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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