________________
.. धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ तन्त्रों में, यथा प्रपंचसार (५ एवं ६), कुलार्णव (१४।३६), शारदातिलक (चौथा पटल), नित्योत्सव (पृ० ४-१०), ज्ञानार्णव (२४ वा पटल), विष्णुसंहिता (१०), महानिर्वाण (१०।११२-११६) एवं लिंगपुराण (२।२१) में दीक्षा का विशद उल्लेख है। निर्णयसागर प्रेस ने सत्यानन्दनाथ के शिष्य विष्णुभट्ट के ग्रन्थ दीक्षाप्रकाशिका का प्रकाशन सन् १६३५ में किया जो शक संवत् १७१६ (= १७६७ ई०) में प्रणीत हुआ था । उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में 'दीक्षा' को 'दा' (देना) धातु एवं 'क्षि' (नाश करना) से निष्पन्न माना है। कुलार्णव० (१७।५१) में आया है-'सज्जन लोग इसे दीक्षा कहते हैं क्योंकि यह दिव्य भाव प्रदान करती है, सभी पापों का क्षय करती है और इस प्रकार संसार के बंधन से मुक्ति देती हैं। शारदातिलक (४२) में आया है क्योंकि यह दिव्यज्ञान देती है और पापों का नाश करती है, अतः तान्त्रिक गुरुओं द्वारा यह दीक्षा कहलाती है।
शक्तिसंगमतन्त्र (१७।३६-३८) में आया है कि दीक्षा का सर्वोत्तम काल है चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहणकाल, किन्तु चन्द्र-ग्रहण-काल सर्वोत्तम है। जब मन्त्र-दीक्षा ग्रहण में दी जाती है तो वार, तिथि, नक्षत्र, मास या योग या करण का विचार नहीं होता । कालीविलासतन्त्र में ऐसा कहा गया है कि यदि भाग्य से फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की पंचमी को स्वाती नक्षत्र एवं शुक्रवार मिल जाय तो उस दिन की दीक्षा से जो फल प्राप्त होता है वह एक करोड सामान्य दीक्षाओं से नहीं प्राप्त होता (६३-४)। और देखिए निर्णयसिन्ध (प०६७) जिसने ज्ञानार्णव को उद्धृत कर यह कहा है कि मन्त्र-दीक्षा चन्द्र-ग्रहण या उससे सात दिन के भीतर हो जानी चाहिए और मुख्य काल सूर्य-ग्रहण है। उसने कालोत्तर को उद्धृत कर यह कहा है कि यदि दीक्षा के लिए सूर्य-ग्रहण मिल जाय तो मास, तिथि, वार आदि का विचार नहीं करना चाहिए। निर्णयसिन्धु ने योगिनीतन्त्र को उद्धृत कर चन्द्र-ग्रहण में दीक्षा की भर्त्सना की है। देखिए अन्य बातों के लिए विट्ठलकृत मुहूर्तकल्पद्रुम (पृ० ६४, श्लोक ६)।
अग्निपुराण (अध्याय २७, ८१-८६ एवं ३०४) में भी दीक्षा, तान्त्रिक मन्त्रों एवं क्रियाओं के विषय में उल्लेख है, किन्तु स्थानाभाव से हम उसे यहाँ नहीं दे सकेंगे । ज्ञानार्णव० (२४१४५-५३) में आया है कि दीक्षा के समय गुरु को अपने शिष्य को ६ चक्रों (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा) के साथ प्रत्येक के दलों की संख्या, रंग तथा प्रत्येक के अक्षरों का ज्ञान करा देना चाहिए। . पश्चात्कालीन धर्मशास्त्र-ग्रन्थों ने मन्त्र-दीक्षा के लिए तन्त्र-ग्रन्थों का सहारा लिया है। वीक्षा एवं उपदेश में अन्तर है, क्योंकि उपदेश में मन्त्र-ज्ञान सूर्य-चन्द्र-ग्रहण में, तीर्थस्थान में, सिद्धक्षेत्र या शिवालय में दिया जाता है। देखिए धर्मसिन्धु (पृ० ३२), रघुनन्दन (दीक्षातत्त्व, जिल्द २, पृ० ६४५-६५६) ।
महानिर्वाण० (१०।२०१-२०२) में आया है कि जब शिष्य शाक्त, शव, वैष्णव, सौर या गाणपत्य हो तो गुरु को उसी सम्प्रदाय का होना चाहिए, किन्तु कौल सभी के लिए अच्छा गुरु है। इस ग्रन्थ (१०।११३) में यह भी आया है कि केवल मद्य पीने से ही कोई कौल नहीं हो जाता, प्रत्युत वह अभिषेक के उपरान्त वैसा होता है। श्लोक ११३-१६३ में अभिषेक का विशद उल्लेख है जो ईसाइयों के बपतिस्मा के समान लगता है। सर्वप्रथम अभिषेक के एक दिन पूर्व गणेश-पूजा की जाती है, इसके उपरान्त आठ शक्तियों (ब्राह्मी आदि), लोकपालों एवं उनके हथियारों की पूजा होती है। इसके उपरान्त दूसरे दिन (अर्थात् अभिषेक के दिन) स्नान के उपरान्त नवशिष्य पाप दूर करने के लिए तिल एवं सोना का दान करता है और अभिषेक के सम्पादन के लिए प्रार्थना के साथ गुरु के पास जाता है। इसके उपरान्त गुरु वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल की रचना करता है, पाँचों तत्त्वों को शुद्ध करता है, एक शम घट रखता है और उसे मद्य से या पवित्र जल से भरता है। प्रमुख क्रिया है गुरु द्वारा शिष्य पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, मातृकाओं, विभिन्न शक्तियों, अवतारों, देवी के विभिन्न रूपों, दिग्पालों, नवग्रहों, नक्षत्रों, योगों, वारों, करणों, समद्रों, पवित्र नदियों, नागों, पेड़ों आदि का आह्वान करके २१ मन्त्रों के साथ (१०।१६०-१८०) जल का छिड़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org