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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र ६१ ने भी आठ सिद्धियों की चर्चा की है, किन्तु वे योगसूत्र से भिन्न हैं । साधनमाला ( संख्या १७२, पृ० ३५० ) में ये नाम हैं---- खड्ग ( वह तलवार जिसपर मन्त्र फूँका गया हो, जिसे धारण कर योद्धा लड़ाई में विजय प्राप्त करता है), अंजन ( वह अंजन जिसके प्रयोग से व्यक्ति गुप्त धन देख लेता है), पादलेप ( वह लेप जिसे लगने पर व्यक्ति अदृश्य रूप से विचरण कर सकता है), अन्तर्धान ( देखते-देखते अदृश्य हो जाना), रसरसायन (साधारण धातु को सोना बना देना या अमरता के लिए रसायन या तेजोवर्धन प्राप्त करना ), खेचर ( आकाश में उड़ना), भूचर ( पृथिवी पर कहीं शीघ्रता से चला जाना) तथा पातालसिद्धि ( पृथिवी के भीतर डूबना ) । बौद्धों के पास धन नहीं होना चाहिए अतः उनके पास धन के पीछे एक लालसा रहा करती थी, अतः कुछ मन्त्रों द्वारा उन्होंने कल्पना की कि कुबेर उन्हें अक्षय सम्पत्ति दे देंगे । उन्होंने ऐसी दुराशा भी की कि मन्त्रों के द्वारा हिन्दू देवता उनके चाकर हो जायेंगे । यथा अप्सराएँ उन्हें घेरे रहेंगी, इन्द्र उनके छत्रवाहक होंगे, ब्रह्मा मन्त्री बनेंगे और हरि प्रतिहारी । बौद्ध, शास्त्रार्थ में लोगों को 'हराना चाहते थे और मन्त्रों द्वारा बिना पढ़े शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे ( साघन०, संख्या १५१, १५५, २५६ ) । वे रोगों को अच्छा एवं दूर करना तथा विष का मार्जन करना चाहते थे । उन्होंने ऐसी कल्पना कर रखी थी कि वे मन्त्रों के बल से सर्वज्ञता एवं बुद्धत्व प्राप्त कर लेंगे । यह हमने देख लिया है कि दीक्षा के उपरान्त गुरु से मन्त्र ग्रहण किया जाता था । अतः दीक्षा के विषय में दो-एक शब्द आवश्यक हैं। दीक्षा के विषय में तान्त्रिकों ने कोई नयी बात नहीं प्रचलित की। प्राचीन वैदिक समय से ही उपनयन से आध्यात्मिक जन्म का आरम्भ माना जाता रहा है और किसी यज्ञ के आरम्भ करने के पूर्व यजमान को पवित्रीकरण की क्रिया करनी पड़ती थी, किन्तु ये दोनों क्रियाएँ उतनी विशद नहीं थीं जितनी कि तान्त्रिक ग्रन्थों वाली दीक्षा । तै० सं० (६।१।१ - ३ एवं ७ ४५८ ) में दीक्षा का उल्लेख है तथा ऐत० ब्रा० ( १1३ ) वैदिक दीक्षा की मुख्य बातें यों दी हैं- पवित्र जल 'जयमान का स्नान, मक्खन से मुख एवं शरीर के अन्य अंगों का लेप, आँखों में अञ्जन, अध्वर्यु द्वारा सात दर्भों वाले तीन गुच्छों से दो बार यजमान के शरीर को नाभि के ऊपर पवित्र करना और तब नाभि के नीचे मन्त्रों से पवित्र करना, उसके उपरान्त विशिष्ट रूप से निर्मित मण्डप में प्रवेश, जिस प्रकार भ्रूण घिरा रहता है उसी प्रकार वस्त्र से शरीर को ढँकना तथा काले मृग चर्म से ऊपरी अंग को ढँकना । शतपथब्राह्मण ( ३।२।१।१६ एवं २२ ) में दीक्षा का विशद उल्लेख है, उसमें यह भी आया है कि यजमान तब तक के लिए एक देवता हो जाता है, मानो दीक्षा यजमान के एक नये जीवन का द्योतक है ( ३।१।२११०-२१, ३।१।३-२८) । अथर्ववेद (७/१1१ ) में आया है -- 'महान् सत्य, उम्र ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म, प्रार्थना एवं यज्ञ पृथिवी को धारण करते है १०७ । प्रो० पी० सी० बागची ने 'कल्ट आव वि बुद्धिस्ट सिद्धाचार्यज' (पु० २७४) नामक लेख में तिब्बती परम्रा के आधार पर ८४ सिद्धों के नाम दिये हैं। सिद्धों की परम्परा आधुनिक काल तक चली आयी हुई है। देखिए ए० बी० ओ० आर० ई० (जिल्द १६, पृ० ४६-६० ) जहाँ पर रत्नगिरि जिले के श्रृंगारपुर के शिवयोगी नामक ब्राह्मण वर्णन है जो कोंकण से बंगाल के राधा नामक सिद्ध के पास गया था। बड़ी भक्ति से बहुत दिनों तक उसकी सेवा की और स्वयं सिद्ध बन गया । अपनी जन्मभूमि को लौट आया और एक मठ का निर्माण किया । हठयोगप्रदीपिका (११५-८) में आदिनाथ (शिव), मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, अल्लमप्रभु आदि से लेकर लगभग ३० महासिद्धों का उल्लेख है । १०७. सत्यं गृहवृतमुग्रं बीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति । अथर्व ० ( १२०११) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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