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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रपञ्चसार (५), शारदातिलक (१३।१२१-१४५) शक्तिसंगमतन्त्र (कालीखण्ड, ८११०२-१०६), मन्त्रमहोदधि (२५ वीं तरंग) आदि तन्त्र-ग्रन्थों में ६ कठोर क्रियाओं का विशद उल्लेख है। शारदा १४१) ने मन्त्रों के ६ ढंगों या संगठनों का शत्र के नाम के साथ उल्लेख किया है, यथा--ग्रन्थन, विदर्भ, सम्पूट, रोधन, योग एवं पल्लव । हम इनका उल्लेख नहीं करेंगे। किन्तु ऐसा प्रकट होता है कि आरम्भिक पूराण भी जादुटोना से प्रभावित थे। उदाहरणार्थ, मत्स्यपुराण ०५ में आया है-'विद्वेषण (मित्रों या ऐसे लोगों में जो एकदूसरे से प्रेम करते हैं) एवं अभिचार में एक त्रिकोण की व्यवस्था होनी चाहिए, उसमें ऐसे पुरोहितों से होम कराना चाहिए जिन्होंने लाल पुष्प धारण किया हो, लाल चन्दन लगाया हो, जनेऊ को निवीत ढंग से धारण किया हो, लाल पगड़ी एवं लाल वस्त्र धारण किया हो, तीन पात्रों में एकत्र किये हुए कौओं के ताजे रक्त से सनी समिधा होनी चाहिए, जिसे श्येन (बाज) की अस्थि (हड्डी) पकड़े हुए बायें हाथ से (कुण्ड में) डालना चाहिए । पुरोहितों को सिर पर बाल खुले रखने चाहिए और रिपु (शत्रु) पर विपत्ति गिरने का ध्यान करना चाहिए, उन्हें 'दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु' नामक यन्त्र तथा 'ह्रीं' एवं 'फट' का जप करना चाहिए तथा श्येनयाग में प्रयुक्त मन्त्र को छुरे पर पढ़कर उससे शत्रु की प्रतिमूर्ति को टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहिए और अग्नि में फेंक देना चाहिए। यह क्रिया केवल इस लोक में फलप्रद होती है, दूसरे लोक में इससे कोई लाभ नहीं होता, अत: जो लोग इसे करें उन्हें शान्ति कर लेनी चाहिए।' मत्स्य० (६३।१३६-१४८) में नारी को वश में करने एवं उच्चाटन के नियम में भी उल्लेख है। यह सम्भव है कि तान्त्रिकों एवं मत्स्य० दोनों ने ६ प्रकार के जादू की क्रियाओं को ब्राह्मण-ग्रन्थों एवं श्रोतसूत्रों में उल्लिखित श्येनयाग से ग्रहण किया हो। और देखिए अग्नि पु० (अध्याय १३८) । अहिर्बुध्न्यसंहिता में भी, जो प्रमुखत: पाञ्चरात्र-विषयक ग्रन्थ है, मन्त्रों की भरमार है। देखिए इसके अध्याय ५२ के श्लोक २-५८ । इसने मन्त्रों को स्थूल, सूक्ष्म एवं परम माना है (अध्याय ५१)। यह द्रष्टव्य है कि बौद्ध तन्त्रों ने भी कतिपय उपलब्धियों के लिए मार्ग-दर्शन किया है। प्रेम में सफलता-प्राप्ति से लेकर निर्वाण तक के लिए मन्त्रों के प्रयोग की चर्चा है। बौद्ध तन्त्र-लेखकों ने, विशेषत: वज्रयानियों ने ८४ सिद्धों की बात चलायी है, जिनके नाम नेपाल एवं तिब्बत में आज भी सम्मान के साथ लिये जाते हैं।०६। बौद्धों १०५. विद्वेषणेऽभिचारे च त्रिकोणं कुण्डमिष्यते । . . होमं कुर्युस्ततो विप्रा रक्तमाल्यानुलेपनाः । निवीतलोहितोष्णीषा लोहिताम्बरधारिणः । नववायसरक्ताढ्य पात्रत्रयसमन्विताः । समिधो वामहस्तेन श्येनास्थिबलसंयुताः। होतव्या मुक्तकेशंस्तु ध्यायद्भिरशिवं रिपौ । दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु तथा हुं फडितीति च । श्येनाभिचारमन्त्रेण क्षुरं समभिमन्त्र्य च । प्रतिरूपं रियोःकृत्वा क्षुरेण परिकर्तयेत् । रिपुरूपस्य शकलान्यथवाग्नौ विनिक्षिपेत् । ... इहैव फलदं पुंसामेतन्नामुत्र शोभनम् । तस्माच्छान्तिकमेवात्र कर्तव्यं भूतिमिच्छता॥ मत्स्य० ६३।१४६-१५५ । तै० सं० (१४।४।५) एवं त० ब्रा० (२।६।६॥३) में एक मन्त्र है-'सुमित्रा न आप ओषधयः दुमित्रास्तस्मै भूयासुर्योsस्मान् द्वेष्टियं च वयं द्विष्मः । श्येन एक अभिचार (जादू) क्रिया का नाम है (देखिए जैमिनि ११४१५ एवं उस पर शबर), और सोमयाग का एक परिष्कृत रूप है और श्येन के विषय में (यथा-श्येनेनाभिचरन् यजेत) ये शब्द आये हैं : 'लोहितोष्णीषा लोहितवसना निवीता ऋत्विजः प्रचरन्ति' (आप० श्री० २२।४।१३ एवं २३) जो शबर द्वारा जैमिन (१०॥४१) में उद्ध त है। देखिए षड्विंश-ब्राह्मण (३।८।२ एवं २२) जहाँ ऐसे ही वचन आये हैं। १०६. देखिए डा० बी० भट्टाचार्य कृत 'इण्ट्रोडक्शन टु बुद्धिस्ट इसोटेरिज्म' (पृ० ८४, ६६ एवं १२६), जहाँ ८४ सिद्धपुरुषों की ओर संकेत है तथा 'कल्चरल हेरिटेज आव इण्डिया' (जिल्व ४, पृ० २७३-२७६), जहाँ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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