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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास होता। ये सब मन्त्रसिद्धि की अवस्था के लक्षण हैं। उसी ग्रन्थ में ऐसा आया है कि साधक को इन लक्षणों का वर्णन गुरु के अतिरिक्त अन्य लोगों से नहीं करना चाहिए, यदि वह अन्य लोगों से सारी बातें कह देता है तो सिद्धियां समाप्त हो जाती हैं (१६।३४-३७) । इसी संहिता (१५।१८६-१८८) में ऐसा आया है कि स्वाहा, स्वधा, फट् , हुं एवं नमः का प्रयोग कम से होम, पिण्डदान, नाशकारी कार्यों, मित्रों में विद्वेष उत्पन्न करने एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए लिए होता है। सभी तन्त्र-ग्रन्थ इस बात पर बल देकर कहते हैं कि का मन्त्र का ग्रहण गुणी एवं योग्य गुरु से होना चाहिए और मन्त्र की साधना गुरु के निर्देशन में तब तक होनी चाहिए जब तक कि शिष्य सिद्ध न हो जाय । हमने ऊपर देख.लिया है कि ऐसा विश्वास किया जाता था कि मन्त्र आध्यात्मिक एवं अलौकिक शक्तियाँ प्रदान करते हैं और साधक के पास सभी वांछित पदार्थ एवं मोक्ष लाते हैं । कुलार्णव० (१४।३-४ ) में आया है-यह शिवसाधन (शिव द्वारा बताये गये सिद्धान्त) में उद्घोषित है कि बिना दीक्षा के मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता, बिना आचार्य के दीक्षा नहीं प्राप्त हो सकती तथा मन्त्र तब तक फल नहीं दे सकते जब तक गरु उनके विषय में शिक्षा न दे दें१० । कर्लाणव० में पून: आया है कि दीक्षाविहीन को न तो सिद्धि मिलती है और न सद्गति । अतः व्यक्ति सभी प्रकार के प्रयत्नों से गुरु द्वारा दीक्षित होना चाहिए । दीक्षा संस्कार हो जाने पर जाति सम्बन्धी अन्तर मिट जाता है, जब शूद्र एवं विप्र दीक्षित हो जाते हैं तो शूद्रता एवं विप्रता की समाप्ति हो जाती है। ऐसा कहा गया है कि कोई पुस्तक में लिखित मन्त्र का जप करना आरम्भ कर दे तो उसे सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती और प्रत्येक पद पर हानि मिलेगी । महानिर्वाण (२।१४-१५एवं २०) में ऐसा आया है कि सत्य एवं अन्य युगों में वैदिक मन्त्रों से वांछित फलों की प्राप्ति होती थी, किन्तु कलियुग में वे विषविहीन सर्प या मृत सर्प के समान हैं, कलियुग में तन्त्रों में घोषित मन्त्र शीघ्र ही फल देते हैं और जप एवं यज्ञों ऐसे सभी कर्मों में उनका प्रयोग विहित है। तन्त्रों में जो मार्ग बताया गया है वह कहीं और नहीं पाया जाता, केवल उसी से मोक्ष प्राप्त होता है या इहलोक या परलोक में सुख मिलता है। महानिर्वाण० (३।१४) का कथन है कि ‘ओं सच्चिदेकं ब्रह्म' सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है, जो परम ब्रह्म की 'बंगाल लांसर' नामक ग्रन्थ (पृ० २४६-२४७) में वर्णन किया है कि किस प्रकार वह कक्ष, जिसमें वे और उनके अमेरिकी मित्र बैठे हुए थे एक योगो द्वारा, जो केवल एक धोती पहने हुये था, कमल के इत्र को महक से गया, पुनः गलाब, कस्तरी, चन्दन-गन्ध से परिपूर्ण हो गया, यह सब केवल एक छोटे से रुई-गच्छ से निकला जिस पर योगी ने एक आकार बढ़ा देने वाला शीशा रख दिया था। श्वेताश्व० उप० (२०१३) ने योग-क्रिया को प्रभावशीलता के प्रथम लक्षणों पर विस्तार के साथ प्रकाश डाला है-'लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च । गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्यं योगप्रवृत्ति प्रथर्मा वदन्ति ।' १००. बिना दीक्षां न मोक्षः स्यात्तदुक्तं शिवसाधने। सा च न स्याद्विनाचार्यमित्याचार्यपरम्परा ॥... अन्तरेणोयदेष्टारं मन्त्राः स्युनिष्फला यतः । कुलार्णव० (१४।३-४) । देविदीक्षाविहीनस्य न सिद्धिर्न च सद्गतिः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरुणा दीक्षितो भवेत् ॥ गतं शूद्रस्य शूद्रत्वं विप्रस्यापि च विप्रता। दीक्षासंस्कारसम्पन्ने जातिभेदो न विद्यते ॥ कुलार्णव० (१४।६७ एवं ६६) १०१. पुस्तकाल्लिखितो मन्त्री येन सुन्दरि जप्यते । न तस्य जायते सिद्धिर्हानिरेव पदे पदे । राघवभट्ट (शारदातिलक ४१) द्वारा उद्धृत । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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