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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र पटल, श्लोक-७५-२६०) में एक भयंकर साधना का वर्णन है, जिसके द्वारा एक ही रात्रि में साधक को मन्त्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है। रात्रि में एक पहर के उपरान्त श्मशान या एकान्त स्थान में जाय, एक चाण्डाल का शव प्राप्त करे या उसका जो किसी व्यक्ति द्वारा तलवार से मारा गया हो, या साँप द्वारा काट लिया गया हो या रणक्षेत्र में कोई नवयुवक मार डाला गया हो, उसका शव प्राप्त करे । उसे स्वच्छ करे, उसकी पूजा करे, दुर्गा की पूजा करे तथा 'ओं दुर्गे दुर्गे रक्षिणी स्वाहा' का पाठ करे। यदि साधक भयंकर दृश्यों को देख कर डर न जाय और एक लम्बी पद्धति का अनुसरण करे, तो वह मन्त्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। तारामक्ति सुधार्णव (तरंग ६, पृ० ३४५) ने शवसाधनविधि का वर्णन किया है । और देखिए कुलचूड़ामणितन्त्र (तान्त्रिक टेक्ट्स , जिल्द ४,६।१६-२८) । राघवभट्ट ने एक वचन उद्धृत करके कहा है कि यदि साधक देवतारूपी अपने गुरु को सन्तुष्ट कर देता है तो उसे बिना पुरश्चरण के भी मन्त्र की सिद्धि प्राप्त हो सकती है, पुरश्चरण मन्त्रों का प्रधान बीज है। जहाँ जप की संख्या न दी हुई हो, वहाँ मन्त्र को ८००० बार कहना चाहिए। राघवभट्ट ने यह भी उद्धृत किया है कि जिस प्रकार रोगग्रस्त व्यक्ति सभी कर्मों को नहीं कर पाता है उसी प्रकार पुरश्चरण से हीन मन्त्र की बात है। अग्निपुराण, कुलार्णव० एवं शारदातिलक ने मन्त्र के पुरश्चरण के स्थानों के विषय में नियमों की व्यवस्था की है। मन्त्रसिद्धि करने वालों के लिए निम्न स्थान, व्यवस्थित हैं-पुण्यक्षेत्र, नदीतीर, गुहा (गुफा), पर्वतमस्तक, तीर्थस्थान के पास का स्थल, नदियों का संगम, पावन वन एवं उद्यान, बेलवृक्ष के तल में, पर्वत की ढाल, देवतायन (मन्दिर), समुद्र-तट, अपना घर, या ऐसा स्थान जहाँ मन प्रसन्न हो जाय । देखिए कुलार्णव० (१५।२०-२४), शारदातिलक (२११३८-१४०) एवं अहिर्बुध्न्य संहिता (२०१५२-५ के दिनों में भोजन के विषय में भी नियम बने हैं, यथा--(ब्रह्मचारी एवं यति के लिए) भिक्षा मांग कर, (व्रतों के लिए ) हविष्य भोजन, विहित शाक, फल, दूध, कन्दमूल, यव का सत्तू है। मन्त्रमहोदधि (२५२६६७१) में शान्ति के समय तथा अन्य क्रूर क्रिया-संस्कारों के समय के हविष्य भोजन के विषय में नियम दिये हए हैं। राघवभट्ट (१६१५६) ने अन्य ग्रन्थों से पुरश्चरण करने वाले साधक के लिए कुछ और नियम भी संग्रहीत किये हैं, यथा मैथुन, मांस, मद्य से दूर रहना, नारियों एवं शूद्रों से न बोलना, असत्य न बोलना, इन्द्रियों को वासना से दूर रखना, प्रात: से दोपहर तक बिना किसी रुकावट के मन्त्र-जाप को करते जाना और प्रतिदिन ऐसा ही करते जाना। जयाख्यसंहिता (१६वा पटल, श्लोक १३-३३) का कथन है कि पुरश्चरण करने में तीन वर्षों तक साधक के समक्ष, भाँति-भाँति की विघ्न-बाधाएँ आती हैं, किन्तु यदि उसके मन एवं कर्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो चौथे वर्ष से उसके पास लोग शिष्य बन कर आते हैं। उसकी सेवा करने लगते हैं और अपना सब कुछ समर्पित कर देते हैं, सात वर्षों के उपरान्त उसके पास घमण्डी राजा भी अनुग्रह एवं प्रसाद के लिए पहुँचता है, नौ वर्षों के उपरान्त वह अलौकिक अनुभव प्राप्त करने लगता है, यथा-आलाद, गम्भीर स्वप्न, मधुर संगीत एवं गन्ध११ तथा वैदिक पाठ का अनुभव होने लगता है, वह कम खाता है, कम सोता है किन्तु दुर्बल नहीं ६. योगसूत्र (३३३६) एवं उसके भाष्य में आया है कि शक्तियों के विकसित हो जाने पर योगी देवी संगीत सुनने लगता है और सुगंधों को अनुभूतियाँ करने लगता है । एफ० योट्स-ब्राउन (लण्डन, १६३०) ने For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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