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धर्मशास्त्र का इतिहास
मध्यकाल के निबन्धों द्वारा तान्त्रिक मन्त्रों के प्रयोग के विषय में यहाँ अब स्थानाभाव के कारण अधिक नहीं लिखा जा सकता । वैदिक मन्त्रों एवं तान्त्रिक मन्त्रों की अन्तर सम्बन्धी एक बात यहाँ दी जा रही है । जैमिनि ( ११२/३२ ) के मत से वैदिक मन्त्र महत्त्वपूर्ण होता है, किन्तु तन्त्रों ने ऐसे मन्त्रों के जप की बात चलायी है जो निरर्थक होते हैं, इतना ही नहीं वे उलटे भी पढ़े जा सकते हैं, यथा 'ओं दुर्गे' को 'गेंदुओं' पढ़ा जा सकता है । उदाहरणार्थ, कालीवलीतन्त्र ( २२।२१ ) में आया है : 'गेंदु ओं त्र्यक्षरं मन्त्रं सर्वकामफलप्रदम् । महायान बौद्धधर्म के ग्रन्थ सद्धर्म पुण्डरीक (कर्न एवं बुन्यीम् नेत्रीम्, १६१२, सै० बु० ई०, जिल्द २१, पृ० ३७० - ३७५ ) में धारणीपदानि नामक मन्त्र हैं । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि मन्त्र केवल हिन्दुओं एवं बौद्धों की ही विशेषता है । प्राचीन काल में बहुत से लोग ऐसा विश्वास करते थे कि शब्दों एवं अक्षरों में ऐन्द्रजालिक शक्ति होती है और इस विश्वास ने आगे बढ़कर ऐसा विश्वास उत्पन्न किया कि निरर्थक शब्दों एवं अक्षरों में भी वही बात पायी जा सकती है। प्राचीन अंग्रेजों, जर्मनों एवं केल्टवासियों में भी ऐसी बात पायी जाती थी ( ई० जे० थॉमस, हिस्ट्री आव बुद्धिस्ट थॉट, १६५३, पृ० १८६ ) ।
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वैदिक एवं तान्त्रिक मन्त्रों का जप पुरश्चरण कहलाता है। पुरश्चरण का शाब्दिक अर्थ है पहले से सम्पादन १८ । महानिर्वाणतन्त्र ( ७७६ - ८५ ) में पुरश्चरण ( संक्षिप्त या विस्तृत) के कई ढंग प्रदर्शित हैं । एक ढंग के अनुसार कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी या मंगल या शनि को पाँचों तत्त्वों को एकत्र करना होता है, इसके उपरान्त देवी की पूजा होती है और महानिशा (अर्धरात्रि ) में एकाग्र होकर १० सहस्र बार मन्त्र का पाठ करना होता है । इसके उपरान्त पूजा करने वाले को ब्रह्मभक्तों के लिए भोजन की व्यवस्था करनी होती है और तब वह पुरश्चरण का सम्पादक कहा जाता है । दूसरा ढंग यह है कि व्यक्ति को मंगल से आरम्भ कर प्रतिदिन मन्त्र को एक सहस्र बार जपना पड़ता है और यह क्रम उसे आगामी मंगलवार तक चलाना होता है और इस प्रकार उसे आठ सहस्र बार मन्त्र जप करने पर पुरश्चरण का सम्पादक कहा जाता है । कभी-कभी ऐसी व्यवस्था की जाती है कि 'शिवाय नमः' या 'ओ शिवाय नमः' ऐसे मन्त्र २४ लाख बार कहे जाने चाहिए और साधक को अग्नि में पायस की २४ सहस्र आहुतियाँ देनी होती हैं, तभी मन्त्र पूर्ण होता है और साधक की अभीप्सित देता है । गायत्री का जप प्रतिदिन १००८ या १०८ या १० बार करना होता है । यह पुराण एवं धर्मशास्त्र-ग्रन्थों के अनुसार ही है। नारदपुराण ( २०५७।५४ ) में आया है कि मन्त्र का जप ८, २८ या १०८ बार होना चाहिए । और देखिए एकादशी तत्त्व ( पृ०५६ ) ।
राघवभट्ट ने शारदातिलक ( १६।५६ ) के भाष्य में सभी मन्त्रों में प्रयुक्त होने वाले पुरश्चरण का उल्लेख किया है । वायवीय संहिता के अनुसार मूलमन्त्र की विधि को ठीक करने को पुरश्चरण कहा जाता है । कुलार्णव में आया है कि पुरश्चरण के पाँच तत्त्व हैं--इष्ट देवता की तीन बार पूजा, जप, तर्पण, होम एवं ब्रह्ममोज । राघवभट्ट ने भी ( शारदा ०३१६।५६ ) इसकी विधि का उल्लेख किया है । कौलावली निर्णय ( १४ वाँ
'अमुष्याः' या 'अस्यै' शब्द रख दिये जाते हैं। तन्त्रराजतन्त्र ( १३।६२-६८ ) ने प्राणप्रतिष्ठाविद्या के लिए अमुष्य से स्वाहा तक ४० अक्षरों का मन्त्र बनाया है जो तान्त्रिक ग्रन्थों की भाषा के अनुरूप ही है ।
६८.मन्त्र के पुरश्चरण के कई अंग होते हैं, यथा--ध्यान (देवता की प्रतिमा या आकार का ध्यान करना), पूजा, मन्त्र जप, होम, तर्पण, अभिषेक एवं ब्रह्मभोज । संक्षिप्त पुरश्चरण में प्रथम तीन का सम्पादन होता है। तर्पण का अर्थ है देवता एवं पितरों को जल से तृप्त करना ।
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