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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
५५ तथोक्त टीका है, त्रैलोक्यमोहन नामक एक मन्त्र है१५, जिसके द्वारा ६ क्रूर ऐन्द्रजालिक कर्म किये जाते हैं और उसमें एक यन्त्र है जिसकी पूजा द्वारा साधक किसी नारी को अपनी ओर खींच ला सकता है। इस ग्रन्थ में व्याकरणसम्बन्धी कुछ दोष भी हैं जिससे गम्भीर सन्देह उत्पन्न होता है कि यह कदाचित् ही महान् विद्वान् शंकराचार्य द्वारा प्रणीत हआ हो। इसमें सन्देह नहीं कि विद्वान् राघवभट्ट ने शारदातिलक की टीका में महान आचार्य शंकर को ही प्रपंचसार का लेखक माना है, जैसा कि कुछ अन्य पश्चात्कालीन लेखकों ने किया है। किन्तु यह जानना चाहिए कि लगभग ४०० ग्रन्थ अद्वैत आचार्य द्वारा प्रणीत कहे गये हैं और राघवभट्ट आचार्य से ७ शतियों के उपरान्त हुए, अत: उनका कथन बिना अधिक भारी साक्ष्य के पूर्ण विश्वास के साथ ग्रहण नहीं किया जा सकता।
तान्त्रिक प्रकार के मन्त्रों की शक्ति के सिद्धान्त से कतिपय पुराण भी प्रभावित हुए हैं । गरुडपुराण (११७, एवं १०) ने कुछ एकाक्षरात्मक एवं निरर्थक मन्त्रों का प्रयोग किया है, यथा-ह्रां, क्षौम्, ह्रीं, हुं, हुः, श्रीं, ह्रीं और उसमें (११२३) आया है कि 'ओं खखोल्काय सूर्यमूर्तये नमः' । सूर्य का मूलमन्त्र है और यह एक आरम्भिक निबन्ध, यथा--कृत्यकल्पतरु (व्रत पृ०६) में सूर्य-पूजा के लिए प्रयुक्त हुआ है। और देखिए इसी बात के लिए, 'भविष्यपुराण' (ब्राह्मपर्व २१५।४) । भविष्य (ब्राह्म० २६।६-१५) में आया है कि 'गं स्वाहा' गणपति-पूजन का मूलमन्त्र है, उसमें हृदय, शिखा, कवच आदि के लिए मन्त्रों की व्यवस्था है और गणपति की गायत्री भी है। गरुडपु० (११३८) में चामुण्डा के लिए एक लम्बा गद्य-मन्त्र है। और देखिए अग्निपु० (१२१३१५-१७), अध्याय १३३-१३५ एवं ३०७ ९६ ।
महाश्वेता नामक एक मन्त्र का उल्लेख भविष्यपुराण में हुआ है जिसका वर्णन कृत्यकल्पतरु (व्रत, पृ०६) एवं एकादशीतत्त्व (पृ० ४०) में है और वह मन्त्र यह है-'ह्रां ह्रीं सः' जिसका जप यदि उपवास के साथ रविवार को किया जाय तो वाञ्छित फल की प्राप्ति होती है।
पश्चात्कालीन निबन्धों ने शारदातिलक (२३१७१-७६) में दिये हुए प्राणप्रतिष्ठा-मन्त्र का प्रयोग किया है। देवप्रतिष्ठातत्त्व (प० ५०६-५०७), दिव्यतत्त्व (पृ०६०६-६१०), व्यवहारमयूख, (१०८६), निर्णयसिन्ध (4०३४१.३५०) आदि ने शारदातिलक से उदधरण लिया है। शारदातिलक ने सम्भवत: अपने पूर्व के ग्रन्थों. यथा जयाख्यसंहिता (पटल २०) एवं प्रपंचसारतन्त्र (३५।१-६) का अनुसरण किया है।
६५. मारणोच्चाटनद्वेषस्तम्भाकेषणकांक्षिणः। भजेयुः सर्वमैवैनं मन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम् ॥ प्रपंचसार (२३।५)। देखिये शक्तिसंगमतन्त्र (८।१०२-१०५) एवं जयाख्यसंहिता (२६ वा पटल, श्लोक २४), अग्निपु० (अध्याय १३८) में भी ६ क्रूर कर्मों का उल्लेख है।
६६. गं स्वाहा मूलमन्त्रोयं प्रणवेन समन्वितः। गां नमो हृदयं सेयं गों शिरः परिकीर्तितम् । शिखां च गूं नमो गेयं में नमः कवचं स्मृतम् । गौं नमो नेत्रमुद्दिष्टं गः फट कामास्त्रमुच्यते। भविष्य (ब्राह्म २६९)। गायत्री यह है-'महाकाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥ वही (२६३१५)। पार्थिवे चाष्टह्रींकारं मध्ये नाम च दिक्षु च । ह्रीं पुटं पार्थिवे दिक्षु ह्रीं दिक्ष लिखेद्वसून् । गोरोचना-कुंकुमेन भूर्जे वस्त्रे गले धृतम् ।। शत्रवो वशमायान्ति, मन्त्रणानेन ,निश्चितम्। अग्निपु० (१२१११५-१७)।
६७. तेनायं मन्त्रः। आं ह्रीं क्रों यं रं लं शं षं सं हों हंसः अमुष्य प्राणा इह प्राणाः। अमुष्य जीव इह स्थितः। अमुष्य सर्वेन्द्रियाणि । अमुष्य वाङमनश्चक्षुः श्रोत्रघाणप्राणा इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा। देवप्रतिष्ठातत्त्व (पृ० ५०६-५०७)। 'अमुष्य' प्रतिमा वाले देवता के लिए आया है (यदि किसी देवी की प्रतिमा बैठायी जाती है तो
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