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________________ ५४ धर्मशास्त्र का इतिहास आया है कि एक मन्त्र, जो मन्त्रों का राजा है, बुद्धत्व देता है, अन्य सिद्धियों के विषय में कहने की आवश्यकता ही क्या है ? दूसरे मन्त्र से अति दुर्लभ बुद्धत्व हाथ के तल में पड़े बदरीफल के समान है, एक अन्य मन्त्र ( जो निरर्थक शब्दों वाला है) यदि पाँच बार कहा जाय और दिन में तीन बार (प्रात:, दोपहर एवं सन्ध्या) तो एक अर्थात् मूर्ख भी तीन सौ ग्रन्थों का जानकार हो जाय । बौद्धतन्त्र भी मन्त्रों के लाख बार के पाठ की व्यवस्था करते हैं ( साधनमाला, जिल्द १, संख्या १६५, पृ० ३२६ एवं संख्या १०८, पृ० २२१) ९४ । कुछ मन्त्रों में महायान के सिद्धान्त 'ओं, फट् स्वाहा' के साथ पाये जाते हैं, यथा--- ओं शून्यता ज्ञानवज्रस्वभावात्मकोऽहम् ' ( साधनमाला, जिल्द १, पृ० ६२ ) । प्रपञ्चसार में, जो अद्वैती गुरु शंकराचार्य द्वारा लिखित कहा जाता है, जिसपर पद्मपाद की नाक्ष दत्त द्वारा सम्पादित, १६५२ ) में भी बहुत-सी धारणियाँ हैं ( तिलस्मी वाक्य, कवच या रक्षा-सम्बन्धी तिलस्म), जिनमें एक यह है ( पृ० २६७ ) - 'अथ खलु बोधिसत्त्वो... इमानि धारणीमन्त्रपदानि भाषते स्म । तद्यथा । ज्वले महाज्वले उक्के तुक्के मुक्के अडे अडाविति नृत्त्ये इट्टिनि विट्टिनि... नृत्यावति स्वाहा' । ६४. ओं मणितारे हुं । लक्षजापेनार्या अग्रत उपतिष्ठति । यदिच्छति तत्सर्वं ददाति । विना मण्डलकस्नानोपवासेन केवलं जापमात्रेण सिध्यति सर्वं कार्यं च साधयति । साधनमाला ( जिल्द १, पृ० २२१) । यहाँ आर्या का अर्थ है देवी तारा। बौद्धों में अत्यन्त प्रसिद्ध मन्त्र है 'ओं मणिय हुं', जहाँ पर 'मणिपद्म' सम्बोधन में है और सम्भवतः तारा देवी की ओर, जिसके पास कमल रत्न है, संकेत है। देखिये डा० एफ० डब्ल्यू० टॉमस ( जे० आर० ए० एस०, १६०६, पृ० ४६४ ) । कभी-कभी इसका अर्थ यों लगाया जाता है है मणिपद्म ( जिसके पास कमल रत्न हो) आप को मनस्कार' । जब ये पृष्ठ प्रेस में मुद्रित हो रहे थे तो लेखक को एक ग्रन्थ प्राप्त हुआ, जो लामा अंगारिक गोविन्द द्वारा लिखित है और जिसका नाम है 'फाउण्डेशंस आव तिबेटन मिस्टिसिज्म' ( राइडर एण्ड कम्पनी, लण्डन, १६५६) । यह ग्रन्थ 'ओं मणिपद्मे हुँ' नामक महान् मन्त्र की गूढ (गुप्त या अलौकिक ) शिक्षा पर आधारित है। इस पाद- पिटप्पणी में इस ग्रन्थ की समीक्षा सम्भव नहीं है। लेखक का कथन है कि मन्त्र 'ओं' मणिपद्मे हूं' अवलोकितेश्वर को समर्पित है ( मुखपृष्ठ पर अवलोकितेश्वर का एक चित्र भी है ) । मन्त्र की जो व्याख्या इस ग्रन्थ में दी हुई है उसे केवल तिब्बती बौद्ध विद्वान् या साधु हो स्वीकार कर सकता है । पृ० २७ पर लिखा हुआ है कि तिब्बत में मन्त्र 'ओं मणि पेमे हुँ' कहा जाता है, और पूरा मन्त्र यों है--'ओं... हुं, ह्रीः ' ( पृ० २३० ) । लेखक इस बात का उपहास करता है कि तन्त्रवाद हिन्दूवादी प्रतिक्रिया है, जिसे आगे चल कर बौद्ध सम्प्रदायों ने ग्रहण किया। लेखक महोदय मन्त्र के शब्दों का अलौकिक अर्थ बताते हैं । पृ० १३० रप वे लिखते हैं -- 'ओ सार्वभौमिकता की ओर समुत्थान है, हुं सार्वभौमिकता ( अभिव्यापित्व ) की स्थितियों का मानव के हृदय की गहराई में अवरोह (उतार) हैं। पृ० १३१ पर आया है--'ओं अनन्त है, किन्तु हुं अन्त में अनन्त है ( नियत में अनियत है), क्षणिक में नित्य ( शाश्वत) है' आदि-आदि। पृ० २३० में आया है- 'ओं में हम धर्मकाय एवं सर्वगत ( सार्वलौकिक ) देह के रहस्य की अनुभूति पाते हैं, मणि में सम्भोगकाय की, पद्म में निर्माणकाय की अनुभूति पाते हैं, हुं में हम तीन रहस्यों के अत्युत्तम देह के संयोग के रूप में वज्रकाय की अनुभूति करते हैं। होः में हम अपने परिवर्तित व्यक्तित्व को सम्पूर्णता को अमिताभ (बुद्ध) की सेवा में समर्पित कर देते हैं' । पृ० २५६ में आया है--' इस प्रकार ओं... हुँ अपने में मुक्ति, प्रेम ( सबके प्रति ) एवं अन्तिम आत्मज्ञान की सुन्दर वार्ताएँ समाहित रखता हैं'। प्रस्तुत लेखक को बलात् कहना ही पड़ता है कि इस प्रकार की व्याख्याओं से किसी, भी मन्त्र के शब्दों से हम समान अर्थ निकाल सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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