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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र ५२ करना चाहिए कि गुरु, मन्त्र, देवता, उसको आत्मा, मन एवं प्राणोच्छ्वास सभी एक हैं, तभी वह परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर सकेगा । कुछ तान्त्रिक ग्रन्थों में मन्त्रों की प्रशंसा अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से की गयी है, विशेषतः श्रीविद्यामन्त्र प्रभूत महत्ता गायी गयी है, यथा, ज्ञानार्णव का कथन है- 'करोड़ों वाजपेय एवं सहस्रों अश्वमेघ फल में श्रीविद्या के उच्चारण मात्र के बराबर नहीं हो सकते, इसी प्रकार करोड़ों कपिला गायों का दान भी श्रीविद्या के एक उच्चारण के समान नहीं है (२४ वाँ पटल, श्लोक ७४-७६ ) । देखिए अग्नि पुराण ( १२५। ५१-५५) जहाँ शत्रु को मारने के लिए मन्त्रों के प्रयोग की बात • अध्याय १३४ एवं १३५ में त्रैलोक्यविजयविद्या एवं संग्रामविजयविद्या का उल्लेख है । तन्त्रों में असंख्य मन्त्रों का उल्लेख है जो एक मन्त्र के विभिन्न रूपों को विभिन्न ढंगों से व्यवस्थित करके बनाये गये हैं। देखिए महानिर्वाण० (५।१०-१३), जहाँ 'ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि स्वाहा' नामक १० अक्षरों के मन्त्र को कुछ शब्दों के मेल तथा 'कालिके' लगा कर १२ मन्त्रों के रूप में रख दिया गया है। इस ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख हुआ है कि करोड़ों मन्त्र हैं और तन्त्रों में जितने मन्त्र हैं वे सभी महादेवी के मन्त्र हैं ( महानिर्वाण ० ५।१८ - १६ ) । 'मन्त्र' शब्द 'मन्' (सोचना) एवं 'त्र' या 'त्रा' से निष्पन्न हुआ है । यास्क के निरुक्त (७।१२ ) में यह केवल 'मन्' से निकला कहा गया है। कुलार्णव का कथन है कि मन्त्र इसीलिए पुकारा जाता है क्योंकि यह सभी प्रकार के भयों से बचाता है, साधक इसके द्वारा अपरिमित ज्योति वाले एवं एक मात्र तत्त्व परमात्मा पर ध्यान लगा पाता है ( १७।५४ ) । इसी प्रकार की व्युत्पत्ति रामपूर्वतापनीयोपनिषद ( १३१२), प्रपञ्चसार (५२) एवं अन्य तन्त्रों में दी हुई है। तान्त्रिक ग्रन्थों में मन्त्रों के विभिन्न प्रकार, यथा - कवच, हृदय, उपहृदय, नेत्र, अस्त्र, रक्षा आदि दिये हुए हैं। स्थानाभाव के कारण हम इनके उदाहरण यहाँ नहीं दे सकेंगे । देखिए ब्रह्माण्डपुराण (३|३३ ), महानिर्वाणतन्त्र ( ७।५६ - ६५), नारदपु० (२।५६, ४८-५० ) । शारदातिलक ने मन्त्रों को पुरुष, स्त्री एवं नपुसंक रूप में बाँट दिया है । पुरुषवाची मन्त्रों का अन्त 'हुं' एवं 'फट् ' से होता है, स्त्रीवाची मन्त्रों का 'स्वाहा' से तथा नपुंसक का 'नमः' से । 'ऋ', 'ऋ', 'लू' 'ऋ' नामक स्वर नपुंसक हैं, शेष स्वर नपुंसक नहीं हैं बल्कि लघु एवं गुरु हैं (शारदातिलक, ६।३ एवं राघवभट्ट की टीका ) । शारदा तिलक ने १७ अध्यायों (अध्याय ७ से २३ तक) में सरस्वती, लक्ष्मी, भुवनेश्वरी, त्वरिता एवं अन्य - दुर्गा, त्रिपुरा, गणपति, चन्द्रमा के मन्त्रों का उल्लेख किया है। बहुत से मन्त्रों का पाठ सहस्रों या लाखों बार किया जाता था, जिससे कि पूर्ण फल की प्राप्ति हो ( शारदातिलक १०।१०५ - १०७ ) । यद्यपि शारदातिलक गम्भीर ग्रन्थ है और इसमें वाममार्गी संभोग आदि का उल्लेख नहीं है तथापि इसमें कुछ मन्त्र जादूगरी के एवं स्त्रियों को वश में करने के हैं (६।१०३-१०४, १०७६), यहाँ तक कि मन्त्रों द्वारा शत्रु-मृत्यु का भी उल्लेख है ( ११।६० - १२४, २१।६५, २२।१) । मन्त्रों की शक्ति के विषय में बौद्धतन्त्र हिन्दूतन्त्र से पीछे नहीं थे । साघनमाला ( पृ० ५७५ ) में ऐसा आया है कि उचित विधि अपनायी जाय तो मन्त्र द्वारा सभी कुछ सम्पन्न हो सकता है । उदाहरणार्थ, इसमें ६३. किमस्य साध्यं मन्त्राणां योजितानां यथाविधि । साधनमाला (पु० ५७५ ) : ओं आः ह्रीं हुं हँ हः अयं मन्त्रराजो बुद्धत्वं ददाति किं पुनरन्याः सिद्धयः | वही (पू० २७० ) ; यातु किं बहु वचनीयं परमति दुर्लभं बुद्धत्वमपि तेषां पाणितलावलीनबदरकफलमिवावतिष्ठति । वही ( पृ० ६२ ) । ओम् चलचल चिलिचिलि चुलुचुलु कुलकुल मुलमुल हहहहुं फट्फट्फट्फट् पद्महस्ते स्वाहा दिने दिने पञ्चवारान् त्रिसन्ध्यमुच्चारयेत् । गर्वभोपि ग्रन्थशतत्रयं गृह्णाति । वही (पू० ८७ ) । सद्धर्मपुण्डरोकसूत्र (अध्याय २१, बिल्लियोथेका इण्डिका सीरीज, डा० नलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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