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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ऋषि द्वारा प्रदत्त-शक्ति के अमोघ भण्डार से युक्त होती है। शिष्य में उस शक्ति को जगाने एवं मन्त्र के प्रण प्रभाव को प्राप्ति के लिए गुरु का स्पर्श एवं साधक (शिष्य) की कल्पना और उसकी इच्छा-शक्ति की संलग्नता आवश्यक है। अक्षरों द्वारा उत्पन्न स्वर शिवशक्ति अर्थात् शब्दब्रह्म के रूप हैं। इसी अन्तिम से सम्पूर्ण विश्व स्वरों (शब्द) एवं पदार्थों (अर्थ) के रूप में, जिसे स्वर या शब्द बोधित करते हैं, अग्रसर होता है। देवता, मन्त्र एवं गुरु साधना के लिए (वह विधि, जो सिद्धि की ओर ले जाती है, जैसा कि तान्त्रिक ग्रन्थों में उल्लिखित हैं) आवश्यक हैं; साधक (शिष्य) को अपने मन में यही विचारते रहना होता है कि ये तीनों अभिन्न हैं। मन्त्र स्तुति या प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना में व्यक्ति किन्हीं शब्दों का प्रयोग कर सकता है, किन्तु मन्त्र में निश्चित अक्षरों का विधान होता है, इन्हीं अक्षरों द्वारा शक्ति साधक के समक्ष अपनी अभिव्यक्ति करती है। मन्त्र ऐसे शब्दों के रूप में हो सकता है जिनका स्पष्ट अर्थ होता है या ऐसे अक्षरों से बना हो सकता है जो एक क्रम में व्यवस्थित होते हैं और अदीक्षित व्यक्ति के समक्ष कुछ भी अर्थ नहीं रखते। इस शास्त्र के कुछ ग्रन्थों में यह स्वीकार किया गया है कि विचार में सर्जना शक्ति है और प्रत्येक व्यक्ति शिव है और अपने को वह जितना ही शिव के अनुरूप पाता जाता है उतना ही वह उच्चतर स्तरों में पहुँचता जाता है। विचार वास्तविक हैं, उदार विचार अपना कल्याण करेंगे और उनका भी भला करेंगे जो हमारे चतुर्दिक् रहते हैं, अन्य लोगों के दुष्ट विचार एवं कांक्षाएँ हमें क्लेश में डाल सकती हैं। तान्त्रिक ग्रन्थों के अपने मन्त्र हैं और वे वैदिक मन्त्रों का भी प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, 'जातवेदसे सुनवाम' (ऋ० १६६१) जो अग्नि को सम्बोधित है, दुर्गा के आह्वान के लिए प्रयुक्त हुआ है; 'त्रियम्बकं यजामहे' (ऋ० ७।५६।१२) जो रुद्र को सम्बोधित है, तन्त्र-ग्रन्थों में मृत्युंजयमन्त्र या मृत-संजीविनीमन्त्र है और मन को शुद्ध करने के लिए महानिर्वाण (८१२४३) में व्यवस्थित है। इसी प्रकार गायत्री मन्त्र (ऋ० ३।६२।१०) को तान्त्रिकों ने अपना लिया है। देखिए शारदातिलक (२१।१-८ एवं १६), प्रपञ्चसार (जिसका ३० वा अध्याय 'ओं'. 'ध्याहतियों तथा गायत्री एवं गायत्री-साधन के शब्दों की व्याख्या से ही भरा पड़ा है)। महानिर्वाण ने व्यवस्था दी है कि वैदिकी सन्ध्या के सम्पादन के उपरान्त तान्त्रिकी सन्ध्या की जानी चाहिए। तान्त्रिकी गायत्री यह है'आद्यानीविद्महे, परमेश्वर्यै धीमहि, तन्नः काली प्रचोदयात्। (महानिर्वाण श६२-६३) । शद्र तान्त्रिक : प्रयोग में ला सकते थे, किन्तु वैदिक गायत्री का प्रयोग कम से 'ओं' 'श्रीं' एवं 'ऐं' के साथ तीनों वर्गों के लोग करते थे। गुरु, मन्त्र एवं देवता की महत्ता यों उल्लिखित है-'जो गुरु को केवल मनुष्य मानता है, मन्त्र को मात्र अक्षर समझता है तथा प्रतिमा को केवल पत्थर समझता है वह नरक में पड़ता है १२ । रुद्रयामल में आया है--'यदि शिव ऋद्ध हो जाते हैं तो, गुरु (शिष्य की) रक्षा करता है, किन्तु जब गुरु क्रुद्ध हो जाता है, कोई नहीं (शिष्य को) बचाता।' परशरामकल्पसूत्र, ज्ञानार्णवतन्त्र, शारदातिलक तथा अधिकांशत: सभी तन्त्र-ग्रन्थों का कथन है कि मन्त्रों में आश्चर्यजनक एवं अलौकिक शक्तियाँ होती हैं। तन्त्रानुयायी अपने गुरु की शाखा के परम्परागत आचारों को विश्वास के साथ मानता है तो उसे सभी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मन्त्रों के द्वारा वाञ्छित फलों की प्राप्ति हो जाती है। तन्त्रशास्त्र की प्रामाणिकता प्रमुखतया शास्त्रानुयायियों के विश्वास पर निर्भर रहती है। साधक को ऐसा अनभव ६२. गुरोमनुष्य बुद्धि च मन्त्रे चाक्षरबुद्धिकम् । प्रतिमासु शिलाबुद्धि कुर्वाणो नरकं व्रजते ।।कलार्णव० (१२. ४५), कौलावलीनिर्णय (१०।१२-१३); रुद्रयामल (२०६५) में आया है---'गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गतिः। शिवे रुष्ट गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।।' और देखिये कुलार्णव० (१२१४६, यहाँ 'गुरुर्देवो महेश्वरः' पाठ आया है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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