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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
को धर्म का प्रज्ञात्मक प्रत्यक्षीकरण था और उन लोगों ने अपने पश्चात आने वालों को जिन्हें धर्म की प्रज्ञात्मक अनुभूति नहीं थी उन मन्त्रों का प्रेषण मौखिक शिक्षा द्वारा किया । ऋग्वेदीय काल में भी ऐसा समझा जाता था कि मन्त्रों एवं स्तोत्रों से आहत होकर देवता यज्ञों में आयेंगे और मन्त्रों एवं स्तोत्रों के पाठकों को रक्षा, वीरपुत्र, पशु, धन-सम्पत्ति , विजय एवं सभी प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करेंगे (देखिए ऋ० १११०२।१-५, २।२४-१५-१६, २।२५।२, ३।३१।१४, २०१७, ६७२।६, १०७८१८,१०११०५१)। हमने यह बात बहुत पहले देख ली है कि पुराणों ने बहुत-से धार्मिक कृत्यों के लिए स्वयं अपने मन्त्र प्रणीत किये थे जो महत्त्वपूर्ण हैं और निरर्थक नहीं हैं।
मन्त्र तन्त्रशास्त्र के हृदय एवं अन्तर्भाग कहे जाते हैं, इसी से कभी-कभी तन्त्रशास्त्र को मन्त्रशास्त्र भी कहा जाता है। प्रपंचसार एवं शारदातिलक ऐसे बान्त्रिक ग्रन्थों में जो सिद्धान्त है, उसे संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है :--मानव शरीर में दस नाडियाँ हैं, जिनमें प्रमुख तीन हैं, यथा-इडा (बायीं ओर, बायें अण्डकोष से लेकर बायीं नासिका तक), सुषुम्ना (शरीर के मध्य में रीढ की नाडी में) एवं पिंगला (दाहिनी ओर, दाहिने अण्डकोष से लेकर दाहिनी नासिका तक)। कुण्डलिनी सर्प की भाँति कुण्डली मार कर मूलाधारचक्र में सोती रहती है। यह शब्दब्रह्म का रूप है। देवी (शक्ति) कुण्डलिनी का रूप धारण करती है, सभी देवता देवी में निवास करते हैं और सभी मन्त्र उसके रूप हैं (शारदातिलक ११५५-५७) । यह हमने देख लिया है कि ज्योति के सम्पर्क में आ जाने पर किस प्रकार शक्ति चेतन हो उठती है और उसमें सृष्टि या रचना करने की इच्छा उत्पन्न होती है और तब वह घनीभत हो जाती है और बिन्दु के रूप में प्रकट
रणत्व के द्वारा बिन्दु तीन भाग में बँट जाता है, यथा-बीज, सक्ष्म (अर्थात नाद, जो बीज बिन्दु है) एवं पर (अर्थात् वह बिन्दु जो क्रिया बिन्दु है)। यह अन्तिम, अव्यक्त स्वर के स्वभाव वाला है
और ऋषियों द्वारा शब्दब्रह्म कहा जाता है (शारदातिलक १।११-१२, प्रपंचसार ११४१)। शब्दब्रह्म सभी पदार्थों में चेतना के रूप में विद्यमान रहता है; यह कुण्डलिनी के रूप में सभी जीवित मानवों की देह में स्थित रहता है और तब गद्य-पद्य आदि के अक्षरों के रूप में प्रकट होता है और वायु द्वारा कण्ठ, ताल, दन्तों आदि में पहुँचता है। इस प्रकार से उत्पन्न स्वर अक्षर कहे जाते हैं और जब वे लिखे जाते हैं तो वर्ण (वर्णमाला के अक्षर, मातृका, जो अ से लेकर क्ष तक ५० हैं) कहे जाते हैं। मूलाधारचक्र से उठते हुए स्वर की उत्पत्ति की उत्तेजना 'परा' (वाक्) कही जाती है, और जब यह स्वाधिष्ठानचक्र में पहुँचती है तो पश्यन्ती, हृदय में पहुँचती है तो मध्यमा तथा मुख में पहुँचती है तो वैखरी कही जाती है। अक्षर एवं वर्ण दोनों कुण्डलिनी ही हैं जो क्रम से वाणी में स्फुट एवं लिखावट में दृश्य या चक्षुग्राह्य होते हैं। सभी मन्त्र (कुछ लोगों के मत से वे ६ करोड़ हैं) वर्णमाला के वर्षों से विकसित हुए हैं और तान्त्रिक लोग वर्णों को जीवित (चेतन) स्वर-शक्तियाँ मानते हैं। ह्रीं, श्री, क्री के समान बीजमन्त्र ही देवता के रूप को दृश्य बनाते हैं (महानिर्वाणतन्त्र ५॥१८-१६) । मन्त्रों को मात्र अक्षर या शब्द या भाषा समझना अनुचित है। वे विभिन्न रूप धारण करते हैं, यथा--बीजमन्त्र, कवच , हृदय आदि । ह्रीं (त्रिभुवनेश्वरी या माया का प्रतिनिधित्व करने वाला)। श्री (लक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करने वाला),क्री (काली का प्रतिनिधित्व करने वाला) के समान बीजमन्त्र सम्भवत: भाषा नहीं कहे जा सकते, क्योंकि उनसे लोगों के समक्ष कोई अर्थ नहीं प्रकट हो पाता। ये देवता (साधक या पूजक के इष्टदेवता) हैं, जो गुणी गुरु द्वारा दीक्षा के समय साधक को दिये जाते हैं। केवल पुस्तकों से उन्हें पढ़ लेने से कोई लाभ नहीं होता। तन्त्र-ग्रन्थों के अनुसार मन्त्र-शक्ति की स्वर-देह है जो मन्त्र के मूल तान्त्रिक द्रष्टा की व्यक्तिता से निःसृत स्वर-स्फुरणों से विद्ध होती है और तान्त्रिक
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