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धर्मशास्त्र का इतिहास
मन का कथन है कि 'मन्त्र' शब्द का प्रमुख अर्थ है ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद का कोई अंश, जिसे वे लोग; जिन्होंने वेदाध्ययन कर लिया है, वैसा मानते हैं और 'अग्नये स्वाहा' ऐसी अभिव्यक्तियाँ, जो 'वैश्वदेव' आदि कृत्य में होती हैं, केवल गौण अर्थ में, मन्त्र के रूप में, स्तुति के लिए प्रयुक्त होती हैं ( मेधातिथि, मनु ३।१२१) । वैदिक धारणा ऐसी रही है कि मन्त्र में महान् शक्ति होती है और उसका पाठ वांछित फल के लिए शुद्ध रूप में ही होना चाहिए । जब मन्त्र का पाठ अशुद्ध होता है अर्थात् जब उच्चारण एवं अक्षर अशुद्ध होता है या उसका उपयोग अयुक्त होता है तो वह शब्द के रूप में वज्र हो जाता है और यजमान को नष्ट कर देता है ( तै० सं० २।४।१ २ ।१ एवं शतपथब्रा० १२६|३|८ - १६ ) । वैदिक मन्त्र चार प्रकार के हैं, यथा ऋक् (जो मात्रिक होता है ), यजुष् ( जो मात्रिक नहीं भी हो सकता है, किन्तु वाक्य अवश्य होता है ), साम ( जो गाया जाता है) एवं निगद ( अर्थात् प्रैष जिसका अर्थ है ऐसे शब्द जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को कोई कर्म करने के लिए सम्बोधित होते हैं, यथा 'स्रुतः सम्मृद्धि, प्रोक्षनीरासादय' ) । निगद स्वरूप मे यजुः ही होते हैं । किन्तु उनमें मूल यजुः से अन्तर यह होता है कि वे उच्च स्वर से पढ़े जाते हैं, किन्तु यजुः सामान्यतः धीमे स्वर से कहे जाते हैं। सबसे अधिक पवित्र मन्त्र है गायत्री ( ऋ० ३।६२।१० ) । अथर्ववेद ने इसे वेदमाता ( १६७१1१ ) कहा है । बृहदारण्यकोपनिषद् ( ५।१४ ) में गायत्री की बड़ी सुन्दर प्रशस्ति गायी गयी है । 'ओं' पवित्र अक्षर है, ब्रह्म का प्रतीक है और तन्त्र भाषा में बीज कहा जा सकता है। 'ओं', 'फट्' एवं 'वषट्' ऐसे थोड़े-से वैदिक अक्षर हैं जिनका कोई अर्थ नहीं है किन्तु वे तन्त्र-भाषा में बीज - मन्त्र हैं। एक बीज निघण्टु (बीज मन्त्रों का कोश) है, जो 'तान्त्रिक टेक्ट्स' (जिल्द १, पृ० २८ - २६ ) में मुद्रित है, और जिसमें 'ह्रीं श्रीं क्रीं, हुं फट् ' ऐसे बीज दिये हुए हैं और उनके प्रतीकों का उल्लेख है । ऐतरेय ब्राह्मण ( ३।५ ) ) में यह लगभग बारह बार कहा गया है, यथा -- " जब यह रूपसमृद्ध ( रूप में परिपूर्ण) होता है तो यज्ञ की पूर्णता है अर्थात् जब सम्पादित होते हुए यज्ञ की ओर ऋक् मन्त्र सीधे ढंग से संकेत करता है ( एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाण मृगभिवदति ) । निरुक्त ( १।१५ - १६ ) ने कौत्स के इस मत पर कि मन्त्रों का कोई अर्थ नहीं है (अर्थात् वे उद्देश्यहीन हैं, उनका कोई उपयोग नहीं है ), एक लम्बा निरूपण उपस्थित किया है। इसी प्रकार का एक लम्बा विवाद पूर्वमीमांसासूत्र ( १ । २।३१ ) में भी है । जैमिनी का कथन है कि वेद में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ एवं लोगों द्वारा प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है और शबर ने अपने माध्य (पू० मी० सू० १ २ ३२ ) में इतना जोड़ दिया है कि मन्त्रों का यज्ञों में प्रयोग केवल अर्थ को प्रकट करने के लिए ही होता है । वैदिक मन्त्र क्या हैं, यह बताना कठिन है, और जैसा कि शबर ने कहा है, यह सामान्यत: समझा जाता है कि वे श्लोक या वचन मन्त्र हैं जिन्हें विद्वान् लोग वैसा मानते हैं । सम्पूर्ण वेद पाँच वर्गों में विभक्त है - विधि ( आज्ञा देने वाले वचन, यथा- 'अग्निहोत्रं जुहुयात्'), मन्त्र, नामधेय ( नाम, यथा- 'उद्भिदा यजते' में 'उद्भिद्' एवं 'विश्वजिता यजते' में 'विश्वजित्' ऐसे नाम ), निषेध ( यथा - ' नानृतं वदेत्' अर्थात् झूठ नहीं बोलना चाहिए ) एवं अर्थवाद ( व्याख्यात्मक या प्रशंसात्मक वचन, यथा - वायु एक देवता हैं, जो सबसे अधिक तेज चलते हैं) । निरुक्त ( १।२० ) में प्राचीन मत का उल्लेख है कि ऋषियों
यह है- ओं नमो भगवते वासुदेवाय (नारदपु० १ १६ ३८- ३६, नरसिंहपु० ७।४३ ) ; तेरह अक्षरों का एक मन्त्र यह है - 'श्रीरामजयरामजयजयरामेति', १६ अक्षरों का एक मन्त्र ये है - 'गोपीजनवल्लभवरणं शरणं प्रपद्ये' (नारद ०२५६।४४) एवं 'ह्रीं गौरि रुद्रदयिते योगेश्वरि हुं फट् स्वाहा' (शारदातिलक ६६६) ।
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