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धर्मशास्त्र का इतिहास अद्वैतावस्था को पहुँचे रहते हैं उनके लिए कोई नियन्त्रण नहीं है और न कोई व्यवस्था है । पवित्र के लिए सभी कुछ पवित्र है। केवल वासना ही दूषण के योग्य है ८६ । इसी संदर्भ में उस ग्रन्य ने नियम विरुद्ध एवं कदाचारमय संभोग के विषय में कुछ ऐसे तुच्छ एवं अश्लील तर्क उपस्थित किये हैं जिन्हें हम यहाँ नहीं लिख सकते। इस प्रकार के वक्तव्यों के लिए अन्य तन्त्र भी कुख्यात हैं । उदाहरणार्थ, कालीविलासतन्त्र (१०।२०-२१) ने शाक्त भक्त को परनारी के साथ संभोग की अनुमति दी है, किन्तु ऐसी व्यवस्था दी है कि वीर्यपात न होने पाये ; उसने दृढ़ता के साथ यह कहा है कि यदि साधक ऐसा कर पाता है तो वह सर्वसिद्धीश्वर हो जाता है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि इस ग्रन्थ के लेखक ने ऐसी लज्जास्पद बात शंकर द्वारा पार्वती से कहलायी है। मद्य के विषय में उस ग्रन्थ में आया है--'जिस प्रकार वैदिक यज्ञों में ब्राह्मणों के लिए सोमपान का विधान है, उसी प्रकार, (कौल धर्म के आचार के अनुसार) उचित कालों में मद्य सेवन करना चाहिए। क्योंकि इससे भोग एवं मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं; केवल उनके लिए मद्य-सेवन निपिद्ध है जो फलार्थी एवं अहंकारी हैं, किन्तु जो अहंकार रहित हैं उनके लिए न तो निषेध और न विधि । जो लोग भरेपाश निर्मक्त (अन्तर करने के पाश से रहित) हैं उन्हें मन्त्रार्थ के स्मरण एवं मन को स्थिर रखने के लिए मद्यपान करना चाहिए, किन्तु जो व्यक्ति केवल सुख के लिए मद्य तथा अन्य तत्त्वों का सेवन करता है वह पातकी है'। इस प्रकार के वक्तव्यों से समाज अवश्य दूषित हो गया होगा और यदि तन्त्रों के विरोध में बातें कही जाती रही हैं तो वे ठीक ही थीं। यदि कभी किसी एक व्यक्ति ने अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त भी कर ली और आध्यात्मिक रूप से पर्याप्त ऊपर उठ गया तो सैकड़ों ऐसे पथभ्रष्ट, छली, कपटी, कदाचारी एवं व्यभिचारी, व्यक्ति रहे होंगे जिन्होंने अबोध लोगों, विशेषत: नारियों को पथभ्रष्ट कर दिया होगा।
बहुत थोड़े-से पुराणों, यथा--देवीपुराण, कालिका, देवीमहात्म्य ( मार्कण्डेयपुराण में ) ने ही देवीपूजा में मद्य, मांस एवं मत्स्य ऐसे कुत्सित मकारों के प्रयोग की चर्चा की है। छठी एवं सातवीं शती के उपरान्त पुराणों ने शाक्तों एवं तान्त्रिकों की विशिष्ट कृत्य-संस्कार-सम्बन्धी विशेषताओं का समावेश करना आरम्भ कर दिया । अपरार्क ने देवीपुराण ८७ से उद्धरण देकर स्थापक (जो देवी प्रतिष्ठा सम्पादन करता है)
८६. अथातः संप्रवक्ष्यामि पञ्चतत्त्वविनिर्गयन् । पञ्चमातु परं नास्ति शाक्तानां सुखमोक्षयोः। केवलः पञ्चमैरव सिद्धो भवति साधकः। केवलेनाद्ययोगेन साधको भैरवो भवेत् । आदि-आदि, कौलावलीनिर्णय ४११५-१६ गरुवीरववस्त्यक्त्वा रम्याः सर्वाश्च योषितः। एता वाः प्रयत्नेन सन्दिग्धानां च सर्वदा ॥ अद्वैतानां च कत्रापि निषेधो नैव विद्यते।... अत एव यदा यस्य वासना कुत्सिता भवेत् । तदा दोषाय भवति नान्यथा दूषणं क्वचित् ।। कौलावलीनिर्णय ८।२२१-२२२, २२६; पवित्रं सकलं चैव वासना कुत्सिता भवेत् । वही, (१७३१७०)। दीक्षितः परनारीषु यदि मैथुनमाचरेत । न बिन्दोः पातनं कार्य कृते च ब्रह्महा भवेत् । यदि न प्रपतेद् बिन्दुः परनारोष पार्वति । सर्वसिद्धीश्वरो भूत्वा विहरेद् भूमिमण्डले।। कालोविलासतन्त्र (१०।२०-२१)।
८७. यदपि देवीपुराणे-वामदक्षिणवेत्ता यो मातृवेदार्थपारगः। स भवेत्स्थापकः श्रेष्ठो देवीना-मातरा (तृका?) सु च। पञ्चरान्नार्थकुशलो मातृतन्त्रविशारदः । आदि-अपरार्क० (पृ० १६); इसके उपरान्त पुनः मत्स्य (२६५।१-५) से स्थापक के गुणों के विषय में उद्धरण आया है जिसमें वाम, दक्षिण एवं तन्त्र की ओर कोई संकेत नहीं है। यह सब भागवत से लिये गये अन्य उद्धरण यह बताते हैं कि मत्स्य का प्रणयन देवीपुराण एवं भागवतपुराण से कई शतियों पूर्व हो चुका था।
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