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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र एवं शैव आपस में लड़ते-झगड़ते चले गये और स्वयं तान्त्रिक पाँच वर्गों में बँट गये, यथा-शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर एवं गाणपत्य । आगे चलकर स्वयं तान्त्रिकों के बीच कादिमत, हादिमत आदि सिद्धान्त परस्पर विरोधी रूप पकड़ते गये।
जिन बातों में तान्त्रिक ग्रन्थ संस्कृत के अन्य धार्मिक ग्रन्थों से भिन्न हैं वे ये हैं :-अलौकिक अथवा अद्भुत शक्तियों की उपलब्धियों का प्रतिवचन ८५, तान्त्रिक साधना द्वारा बहुत ही शीघ्र परम तत्त्व की अनुभूति प्राप्त करना (देखिए प्रिंसिपुल्स आव तन्त्र, भूमिका, पृ० १४), वाञ्छित फलों की प्राप्ति के लिए पंचमकारों द्वारा देवी की पूजा पर बल देना (महानिर्वाण ० ५।२४, 'पंचतत्त्व विहीनायां पूजायां न फलोद्भव' एवं मन्त्रों, बीजों (ऐसे अक्षर जिनका अर्थ सामान्य लोग नहीं समझते), न्यासों, मुद्राओं, चक्रों, यन्त्रों तथा अन्य ऐसी बातों को, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, महत्ता देना । तन्त्रवाद की भर्त्सना के मूल में है उसका मद्य, मांस, मैथन आदि पर बल देना, जिनके द्वारा देवी की पूजा अति प्रभावशाली मानी जाती है। उसकी भर्त्सना का अन्य कारण है वह सिद्धान्त कि केवल मन्त्र या मन्त्रों के पाठ से मद्य, मांस तथा अन्य तत्त्व शद्ध हो जाते हैं, देवी को समर्पित कर देने से तथा उन पर ध्यान करने से वे ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं, जबकि उसी सांस में यह बात भी कही जाती है कि मद्य एवं मांस का ग्रहण बिना इस कृत्य के पापमय है। ये बातें उन लोगों को जो कौल नहीं हैं, विरोध में खड़ा करती हैं। बहुधा लोग यह समझते हैं कि तन्त्र की शिक्षा सामान्य लोगों को भ्रष्ट कर देने वाली है और उसमें कपट एवं छल की वास (गन्ध) आती है।
कुछ तन्त्रों ने ऐसी बातें कहीं हैं जो अतान्त्रिकों को उच्छृखलतापूर्ण जंचती हैं । कौलावलिनिर्णय (४।१५) में आया है--'शाक्तों के हित में सुख एवं मोक्ष के लिए पाँचवें तत्व (मैथुन) से बढ़कर कोई अन्य तत्त्व नहीं है। केवल पाँचवें तत्त्व (के अभ्यास) से साधक सिद्ध हो जाता है। यदि वह केवल पहले (अर्थात् मद्य) का सेवन करता है तो वह भैरव होता है, यदि वह दूसरे (अर्थात् मांस) का सेवन करता है तो ब्रह्मा होता है. तीसरे (मत्स्य) से महाभैरव होता है, चौथे (मद्रा) से वह साधकों में श्रेष्ठ होता है'। इसी तन्त्र ने, आगे पुनः कहा है--'सभी स्त्रियाँ (शाक्त) साधक के संभोग के योग्य होती हैं, केवल गरु की पत्नी एवं उन शाक्तों की, जो वीर अवस्था को प्राप्त हो गये रहते हैं, पत्नियों को छोड़ कर; किन्तु जो लोग
८५. सर जॉन वुड्रोफ (प्रिंसिपुल्स आव तन्त्र, भाग २, भूमिका, पृ० १२-१४) का कथन है कि तान्त्रिक प्रन्थ अन्य धार्मिक ग्रन्थों से एक विषय में विभिन्न हैं और वह है इसके कृत्य के विभिन्न अंग, यथा-मन्त्र, बीज, मुद्राएँ, यन्त्र, भूतशुद्धि, और केवल इन्हीं बातों के कारण किसी ग्रन्थ को तान्त्रिक ग्रन्थ कहा गया । और देखिए ई० ए० पेयन कृत 'शाक्तज' (पृ० १३७) जहाँ ऐसा ही मत प्रकाशित किया गया है। सर जॉन वुड्रौफ ने पेयने के ग्रन्थ की समीक्षा (जे० आर० ए० एस०, १६३५, १० ३८७) करते हुए स्वयं माना है कि शाक्त कृत्य विशेषता है इसका मन्त्र, इन्द्र-जाल सम्बन्धी इसके अंश और इसका वह भाग जो गुप्त रहता है जहाँ योग होता है वहाँ भोग नहीं होता, किन्तु शाक्त सिद्धान्त में व्यक्ति योग एवं भोग दोनों की उपलब्धि कर सकता है और यही उस सिद्धान्त को स्पष्ट एवं गहन विशेषता है। यहाँ तक कि बौद्ध वजयान तन्त्रों ने बोधि (देखिये गुह्यसमाज०, पृ० १५४, साधनमाला, १, पृ० २२५ एवं २, पृ० ४२१ एवं ज्ञानसिद्धि ११४ : ये तु सत्त्वाः समारूढाः सर्वसंकल्पवजिताः। ते स्पृशन्ति परां बोधि जन्मनीहैव साधकाः ॥) की प्राप्ति को परम उद्देश्य माना
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