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धर्मशास्त्र का इतिहास नहीं कहना चाहिए; यह (परमात्मा का) अन शासन है; चक्र-पूजा की घटना का उल्लेख कभी भी नहीं होना चाहिए।' १८ वीं शती में लिखित सुधारवादी महानिर्वाणतन्त्र का कथन है कि कलियुग (जिसमें लोग सामर्थ्यहीन होते हैं और पापमय यग का प्रभाव अधिक होता है) में पाँचवें तत्त्व (मैथुन) के लिए अपनी पत्नी ही शक्ति हो सकती है, क्योंकि उस स्थिति में कोई अपराध नहीं हो सकता, या उसके स्थान पर लालचन्दन लेप का प्रयोग हो सकता है। श्री अच्युतराय मोदक कृत 'अवैदिकधिक्कृति' (अवैदिक प्रयोगों एवं आचारों की भर्त्सना) में पंचमकारों के सम्प्रदाय की कटु आलोचना की गयी है। देखिए तारापोरेवाला कमेमोरेशन, वाल्यम (डकन कालेज रिसर्च इंस्टीच्यट, प० २१४-२२०) जहाँ अच्युतराय मोदक पर निबन्ध है। उनका ग्रन्थ १८१५ ई० में प्रणीत हुआ था।
स्वभावत: सामान्य लोगों ने, जो शक्ति, नाद, बिन्दु आदि के गहन एवं सूक्ष्म दर्शन को न तो पसन्द करते थे और न समझ सकते थे, कौतूहल एवं अतिस्पृहा के साथ तन्त्रों द्वारा व्याख्यायित पंचमकारों एवं मन्त्रों, बीजों, चक्रों आदि द्वारा की जाने वाली शक्ति-पूजा के सरल मार्ग को अपना लिया, और कुछ लोग गुरुओं, शाक्तों एवं तान्त्रिकों का रूप धारण करके कालान्तर में अति गहित हो गये।
तन्त्रों का मार्ग, अपने उच्चतर स्तर पर, उपासना या भक्ति का था, किन्तु यह बहुधा जादूगरी एवं अनैतिकता के गर्त में गिर जाया करता था। पूजित होने वाली देवी, परमेश्वरी, उपासक के लिए तीन रूपों वाली थी, यथा-स्थूल, सूक्ष्म एवं परा। प्रथम रूप में देवी हाथों-पैरों आदिवाली होती थी और भक्त लोग उसकी पूजा हाथों एवं आँखों से करते थे; दूसरे रूप में अच्छे गुरु से प्राप्त मन्त्र होते थे जो श्रवण एवं वाणी की इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाते थे; तीसरे (परा) रूप में देवी को साधक मन द्वारा समझता था और वह विभु चेतना आदि के रूप में वर्णित होती थी (देखिए नित्याषोडशिका, ६।४६-५०)।
कुछ आधुनिक लेखकों ने सम्पूर्ण तान्त्रिक साहित्य के प्रति अन्याय किया है और उसे अभिचार आदि का जादू या अश्लीलतापूर्ण कहा है। प्रस्तुत लेखक उन लोगों के समान नहीं है जो किसी बात को न समझ पाने पर उसे त्रुटिपूर्ण , असत्य या व्यर्थ समझते हैं। प्रस्तुत लेखक इस बात में विश्वास करता है कि कुछ उच्चतर मन:स्थिति वाले तान्त्रिकों तथा कुछ तन्त्र-ग्रन्थों का उद्देश्य था योग-क्रियाओं द्वारा आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति करना, परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना (जिसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव या देवी के नाम से पुकारा जाता है ) तथा मोक्ष की प्राप्ति करना। प्रस्तुत लेखक यह जानता है कि उपर्युक्त बहुत-सी बातों का आधार तथा कछ तन्त्र-ग्रन्थों में उल्लिखित जादू-टोना का आरम्भ या स्रोत, बहुत कम मात्रा में ही, ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामविधान ब्राह्मण एवं अन्य वैदिक ग्रन्थों में पाया जाता है । भले ही प्रस्तुत लेखक को, जिसने बहुत-से तन्त्रों
पतंजलि के योगसत्र को भाष्य एवं टीकाओं के साथ गम्भीरता एवं सावधानी के साथ पढ़ा है. कोई रहस्य वादी अनुभूति नहीं हुई है, किन्तु यह लेखक यह मानने को सन्नद्ध नहीं है कि पैगम्बरों, सन्तों, कवियों आदि को रहस्यवादी दर्शन एवं अनभव नहीं प्राप्त हए थे। मानव की मानस शक्तियाँ विशद एवं अज्ञात हैं। यह बात ठीक है कि क छ तान्त्रिक ग्रन्थों ने सामान्य सामाजिक जीवन के नियमों एवं परम्पराओं (समाजधर्म में अन्तर प्रकट किया है, किन्तु तान्त्रिक पूजा के विचित्र स्वरूपों में, जिनमें जब तक वह चलती रहती है. जाति एवं लिंग का विभेद नहीं खड़ा किया जाता । यह बात भी ठीक है कि तन्त्र-ग्रन्थों ने स्त्रियों को पुरुषों के समान माना और उन्हें उच्च स्थिति प्रदान की। इतना ही नहीं, उन्होंने सभी के लिए देवी की पूजा को प्रतिष्ठित कर वैष्णवों , शैवों एवं अन्य लोगों को एक-दूसरे के विरोध में जाने एवं विवाद से बचाने के लिए एक ही मञ्च स्थापित किया। किन्तु इस विषय में अधिक सफलता नहीं प्राप्त हो सकी और वैष्णव
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