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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र के मद्य-सेवन, विष-सेवन के सदृश है, जो व्यक्ति ऐसा करता है वह बहुत दिनों तक रुग्ण रहेगा और आयु के पूर्व ही शीघ्र मर जायेगा । मद्य-सेवन वह भी कर सकता है जिसे कुछ पूर्णता प्राप्त हो चुकी है और वह देवी के ध्यान में डूबकर अलौकिक आनन्द की अनुभूति कर लेता है, जब वह उस स्थिति के ऊपर अधिवः पीता है तो वह पापी हो जाता है (और देखिए कुलार्णव० ७।६७-६८, जहाँ पर अन्तिम बात की ओर संकेत है)।
आडम्बरहीन लोगों के दृष्टिकोण से एक अत्यन्त विद्रोहपूर्ण कृत्य है चक्र-पूजा (घेरे में होने वाली पूजा) । बराबर संख्या में पुरुष एवं नारी, बिना जाति-भेद के, यहाँ तक कि सन्निकट रक्त सम्बन्धी जन भी गप्त रूप से रात्रि में मिलते हैं और एक वृत्त में बैठते हैं (देखिए कुलावलीनिर्णय, ८७६)। एक यन्त्र (चित्र) के रूप में देवी चित्रित होती हैं। चक्र का एक नेता होता है। नियम ऐसे थे कि केवल वीर स्थिति में कुशल व्यक्ति ही सम्मिलित किये जाते थे ८३ और पशु भाव वाले (साधारण जन लोग जो अपने पशुत्व पर विजय नहीं पा सके हैं) सर्वथा त्याज्य थे। यह कैसे विश्वास किया जा सकता था कि 'चक्र' के नेता में वे उत्तम गुण विद्यमान हैं जो ऊपर उल्लिखित हैं और वह नेता उन गुणों से युक्त लोगों को ही सम्मिलित करेगा? उपस्थित स्त्रियों में सभी अपनी-अपनी कंचुकी को एक पात्र (या आधार या स्थान) में रख देती थीं और उपस्थित पुरुषों में प्रत्येक उनमें से किसी एक को उस रात्रि के लिए चुन लेता था (अर्थात् पात्र में से कंचुकी को उठाकर उसकी मालकिन को चुन लेता था)। इस चक्र के आचार ने तान्त्रिकों को अवश्य भर्त्सना एवं निन्दा का पात्र बनाया होगा। इसी से कुलार्णव० ८४ ने अपनी सम्मति दी है कि चक्रपूजा गुप्त रीति से होनी चाहिए । 'श्री चक्र में जो कुछ भला या बुरा होता है, उसे जनता में कमी
तीतो वीतरागः सर्वभूतसमः क्षमी।। (वही ११५५)। इन तीन भावों के विषय में तन्त्र विभिन्न मत रखते हैं। कालीविलासतन्त्र में आया है कि दिव्य प्रकार के लोग केवल सत्ययुग एवं त्रेतायुग में होते थे, वीर प्रकार के लोग केवल त्रेतायुग एवं द्वापर युग में पाये जाते थे, ये दोनों कलियुग में नहीं होते हैं, केवल पशु-भाव कलियुग में बचा रह गया है (६३१० एवं २१)।
८३. देखिए 'शक्ति एवं शाक्त' (पृ० ३५४); फर्कुहर का ग्रन्थ 'आउटलाइंस आव दि रिलिजियस लिटरेचर आव इण्डिया (पृ० २०३); महानिर्वाणतन्त्र ८।२०४-२१६ । श्रीचक्र वृत्तातं शुभं वा यदि वाशुभम् । कदाचिन्नैव वक्तव्यमित्याज्ञा परमेश्वरि ।। कुलधर्मादिकं सर्व सर्वावस्थासु सर्वदा। गोपयेच्च प्रयत्नेन जननीजारगर्भवत् । वेदशास्त्रपुराणानि स्पष्टानि गणिका इव । इयं तु शाम्भवी विद्या गुप्ता कुलवधूरिव ॥कुलार्णव० (१११७६, ८४, ८५)। किन्त महानिर्वाण (४७६-८०) में शिव द्वारा कहलाया गया है कि कौलिक साधना खुले रूप में होनी चाहिए और उन्होंने अन्य तन्त्रों में जो यह कहा है कि कौलिक धर्म को गोपनीय रखना दोषयुक्त नहीं है, वह अब, जब कि कलियुग प्रबल हो गया है, ठीक नहीं है।
८४. शेषतत्त्वं महेशानि निर्वीयं प्रबले कलौ। स्वकीया केवला जेया सर्वदोषविवजिता।। अथवान स्वयस्वादि कसमं प्राणवल्लभे । कथितं तत्प्रतिनिधौ कुसीदं परिकीतितम ॥ महानिर्वाण. (६।१४-१५) 'अत्र' का अर्थ है 'शेष तत्व के निवेदन अर्थात् हव्य में, शेषतत्त्व का अर्थ है पाँचवाँ तत्त्व अर्थात् मैथुन । टीकाकार ने व्याख्या ही है कसीदं रक्तचन्दनम्' । शक्ति होने वाली स्त्रियाँ तीन वर्गों में विभाजित हैं, यथा--स्वीया (अपनी पत्नी), परकीया (दूसरे की पत्नी) एवं साधारणी (वह स्त्री जो वेश्या हो)।
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