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________________ प्रा० धर्मशास्त्र का इतिहास प्रो० इनिरिख जिम्मर ने अपनी पुस्तक 'आर्ट आव इण्डियन एशिया' (जिल्द १, पृ० १२६-१३०) में कुछ वक्तव्य दिये हैं जो विचारणीय हैं। उन्होंने जो कुछ कहा है वह कला-विशेषज्ञ एवं भारतीयकला के इतिहासकार के रूप में कहा है। उनकी धारणाएँ उड़ीसा के पुरी एवं अन्य मन्दिरों तथा भारत के अन्य स्थानों में पाये जाने वाले मन्दिरों पर तक्षित तन्त्र सम्बन्धी प्रतिमाओं पर आधारित हैं। उनका कहना है कि भारतीय कला के पीछे भारतीय धार्मिक एवं दार्शनिक जीवन है। भारतीय कलाकारों ने भौतिक जीवन की स्थल आवश्यकताओं पर भी ध्यान दिया है। भारतीयों ने न केवल योग पर ध्यान दिया है, प्रत्युत उन्होंने भोग एवं प्रेम की पूर्ण अनुभति को भी स्थान दिया है। हिन्दू एवं बौद्ध परम्पराओं में जो प्रतीक प्राप्त होते हैं उनसे यह व्यक्त होता है कि योग एवं भोग में कोई मौलिक आन्तरिक विरोध नहीं है। योग के कठोर अनुशासनों में आध्यात्मिक शिक्षक एवं पथ प्रदर्शक के रूप में गरु का जो कर्म था वह भक्तों एवं कामुक सहकर्मियों द्वारा भोग के उपक्रमों में ग्रहण कर लिया गया। दीक्षित एवं अभिमन्त्रित नारी शक्ति के रूप में प्रकट होती है और दीक्षित एवं अभिमन्त्रित पुरुष शिव के रूप में, और दोनों देवी एवं देव के एकशरीर या एकमूर्ति के रूप में अपने भीतर परम महत्ता की अनुभूति ग्रहण करते हैं। हमने यह पहले ही कह दिया है कि प्रो० जिम्मर की यह धारणा त्रुटिपूर्ण है कि तान्त्रिक कृत्यों को योग के भारतीय साम्प्रदायिकों ने वाममार्ग के रूप में विधिवत् अवमानना (अवज्ञा) दी। प्रो० जिम्मर, यह कहते हुए भी त्रुटिपूर्ण हैं कि प्रथम शती भर तान्त्रिक कृत्य भारतीय सहज अनुभूति के आधार थे। इस कथन की पुष्टि के लिए कोई प्रमाण नहीं है। स्वयं तान्त्रिकों ने पूजा में पंचमकारों का प्रयोग वामाचार कहा है। अब हम तान्त्रिकों की दो-एक विलक्षण धारणाओं एवं आचारों का उल्लेख करेंगे। 'आं, हीं, कों' नामक तीन बीजों के पाठ तथा 'ओं आनन्द भैरवाय नमः' एवं 'ओं आनन्द भैरव्यै नमः' के जप से मद्रा के द्रव्य की शुद्धि की जाती थी ८१। महानिर्वाण एवं तन्त्रराजतन्त्र में आया है कि बिना शुद्धि८२ १६४, १८६१-१८६५) है जिसका नाम है पंचमकारशोधनविधि, जिसमें वैदिक मन्त्रों से महानिर्वाणतन्त्र की भांति ही पंचमकारों की शुद्धि का उल्लेख है । ___ ८१. शुद्धि बिना मद्यपानं केवलं विषभक्षणम् । चिररोगी भवेन्मन्त्री स्वल्पायुम्रियतेऽचिरात् ।। महानिर्वाण. (६.१३) । सर जॉन वुड्रौफ एक विचित्र व्याख्या उपस्थित करते हैं कि बिना भोजन के मद्य अधिक हानि या कष्ट उत्पन्न करता है तथा मन्त्र-जप एवं अन्य कृत्यों का सम्पादन, साधकों के विश्वास के अनुसार, मद्य से उत्पन्न शाप को दूर करता है और साधक देवी एवं शिव के सम्मिलन का ध्यान मद्य में करता है, क्योंकि मद्य स्वयं एक देवता है। सत्यत्रेताद्वापरेषु यथा मद्यादिसेवनम् । कलावपि तथा कुर्यात् कुलवानुसारतः ।। कुलमार्गेण तत्त्वानि शोधितानि च योगिने । ये दधुः सत्यवचसे नहि तान् बाधते कलिः। महानिर्वाण० (४।५६-६०)। ८२. कुलार्णव० (१७।२५) ने 'वीर' को परिभाषा यों को है : 'वीतरागमदक्लेशकोपमात्सर्यमोहतः। रजस्तमोविदुरत्वाद्वीर इत्यभिधीयते।।' इन उत्कृष्ट गुणों को आवश्यक के रहते हुए भी रुद्रयामल (२८।३१-३६) में आया है कि वीर को दूसरे की सुन्दर पत्नी (या अपनी) का सम्मान करना चाहिए, जो आभूषणयुक्त हो, जिसकी देह कामुक रागों से व्याप्त हो और जो मद्य से उत्फुल्ल हो उठी हो-'अथ वीरो यजेत्कान्तां परकीयामथापि बा।''मदनानलतप्ताङ्गीमासवानन्दविग्रहाम् ।।' आदि । महानिर्वाण० (११५७) ने साधकों को तीन श्रेणियां बतायी हैं-पश, वीर एवं दिव्य, अन्तिम को परिभाषा यों है-'दिव्यश्च देवताप्रायः शुद्धान्तःकरण सदा । द्वन्द्वा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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