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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र पड़ना होता है जो कि पृथिवी तत्त्व का केन्द्र है । साधक को इसका अभ्यास बार-बार करना होता है और लगातार अभ्यास से ही पुनर्जन्म का कारण अर्थात् वासना (इच्छा) दूर होती है।" यह व्याख्या अति गम्भीर एवं उत्कृष्ट रूप से मानसिक है। किन्तु किसी प्रकार भी प्रतीति में बैठने वाली नहीं है।
प्रस्तुत लेखक यह जानना चाहता है कि कितने तन्त्र-लेखकों एवं कितने तान्त्रिकों ने ऊर्ध्वायन के सिद्धान्त को, जो 'तन्त्रज़ ऐज़ ए वे ऑव रीयलिजेशन' (आत्मज्ञान के लिए तन्त्र-विधि, कल्चरल हेरिटेज ऑव इण्डिया, जिल्द ४, पृ० २३३-२३५) में उल्लिखित है, पंचमकारों के आलम्बन की व्याख्या करके अनुभव किया है। प्रथम प्रश्न यह है-'एक अति गम्भीर एवं उच्च आनन्द की अवस्था के वर्णन के लिए अश्लील भाषा का प्रयोग क्यों आवश्यक था ? मान लिया जाय कि वुभौफ ने मद्य की जो व्याख्या की है वह ठीक है, तो मत्स्य एवं मांस की क्या व्याख्या होगी? समर्थकों ने जो गूढार्थ 'मत्स्याशी' एवं 'मांसाशी' के विषय में दिया है वह भूलभूलैया मात्र है, उससे कुछ अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। कुलार्णव०, पारानन्द-सूत्र तथा कतिपय अन्य ग्रन्थों ने सदैव साधारण अर्थ में ही मद्य, मांस एवं मत्स्य ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है। कुलार्णव० (२।१२६) ने मनु (६३ : सुरा वै मलमन्नानां आदि) को उद्धृत किया है । तीन प्रकार की सुरा बनाने की विधि बतायी है (५॥१५-२१) और कहता है कि मदों में सुरा १२वाँ प्रकार है और अन्य ११ प्रकार के मद (मद्य) पनस, अंगूर, खजूर, गन्ना आदि से बनते हैं (५।२६)। कुलार्णव ने कौल आचार में मद्य पीने के ढंग पर प्रकाश डाला है (११।२२-३५) । इसने मांस के तीन प्रकार बताये हैं-नभचर जीवों (पक्षियों) के , जलचर के एवं स्थलचर के। स्वच्छन्दतन्त्र (कश्मीरी शैवागम पर एक महान् प्रामाणिक ग्रन्थ) में आया है कि भाँति-भांति की मछलियाँ एवं मांस तथा ऐसे भोजन जो चूसे जाते हैं एवं पिये जाते हैं, शिव की प्रतिमा पर चढ़ाये जाने चाहिए और इस विषय में कंजूसी नहीं की जानी चाहिए । पारानन्दसूत्र के उद्धरण यह भली भाँति प्रकट करते हैं कि मद्य, मांस एवं मैथुन साधारण अर्थ में ही प्रयुक्त हुये हैं। पारानन्दसूत्र (पृ० ८०-८३) ने साधक द्वारा किये जाने वाले मै थन का ऐसा अश्लील वर्णन किया है कि यहाँ उसका उद्घाटन करना असम्भव है। देवी-पूजा सविस्तार होती थी, सोलह उपचार किये जाते थे। तो ऐसी स्थिति में मद्य, मांस एवं मैथन को देवी-पजा के लिए अनिवार्य क्यों माना गया ? कुलार्णव एवं अन्य तन्त्रों ने वेद की प्रशंसा की है , वैदिक मन्त्रों का प्रयोग किया है तथा उपनिषदों एवं गीता के वचन उद्धृत किये हैं। तब भी दुःख की बात है कि उन्होंने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि सामान्य जनता पर उनके कथनों एवं आचारों का क्या प्रभाव पड़ सकता है। मध्यकाल के कुछ ऐसे कौल-सम्प्रदाय-सम्बन्धी ग्रन्थ हैं, जो मद्य पीने मांस खाने एवं मैथुन करने का वर्णन अश्लील ढंग से करते हैं और देवी-पूजा के लिए आवश्यक मानते हैं और बलपूर्वक कहते हैं कि इससे मुक्ति मिलती है । कौलरहस्य (जिसमें १०० श्लोक हैं) के दो श्लोकों से पता चल जायेगा कि सामान्य लोग पंच मकारों के विषय में क्या धारणा रखते थे ।
८०. निधाय धारां वदने सुधायाः श्रीचक्रमभ्यर्च्य कुलक्रमेण । आस्वाध मद्यं पिशितं मृगाक्षीमालिंग्य मोक्ष सुधियो लभन्ते ।। आस्वादयन्तः पिशितस्य खण्डम कण्डपूर्ण च सुधां पिबन्तः । मृगक्षणासङ्गतमाचरन्तो भुक्तिं च मुक्तिं च वयं व्रजामः॥ कौलरहस्य (श्लोक ४ एवं ७; डकन कालेज पाण्डुलिपि, संख्या ६५६, १८८४-८७; संवत् १७६०=१७३४ ई० में प्रतिलिपि बनी)। यह नीलपटदर्शन के सिद्धान्त से मिलाया जा सकता है । देखिये पादटिप्पणी संख्या ६० । भण्डारकर ओरिएण्टल रीसर्च इंस्टीच्यूट (पूना) में एक पाण्डुलिपि (डकन कालेज, संख्या
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