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धर्मशास्त्र का इतिहास
मद्यपीते हैं । जब योग का अभ्यासी ७७ ज्ञान की तलवार से अच्छा या बुरा कर्म करने वाले पशु (अहं) को काटता हुआ अपने मन को परम ( तत्त्व ) में लगा देता है तो वह पल ( सर्वोच्च, मांस) का खाने वाला कहा जाता है । योगी, जो अपने मन से अपनी कतिपय इन्द्रियों को संयमित करता हुआ, उन्हें आत्मा में केन्द्रित कर देता है, 'मत्स्याशी' हो जाता है७८, अन्य सब केवल प्राणियों के हन्ता कहे जाते हैं । पशु ( वर्ग के ) व्यक्ति की शक्ति ( साधक से सम्बन्धित नारी) अप्रबुद्ध होती है; किन्तु कौलिक की शक्ति प्रबुद्ध होती है; जो ऐसी शक्ति को सम्मानित करता है वह वास्तविक रूप में शक्तिपूजक है । जब व्यक्ति पराशक्ति ( सर्वोच्च शक्ति) एवं आत्मा (शिव) के सम्मिलन से उत्पन्न आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है तो वही मैथुन कहलाता है; अन्य व्यक्ति मात्र स्त्रीनिषेवक हैं ।
लोकसर्यादाविरुद्ध तान्त्रिक आचारों के समर्थक अपेक्षाकृत अधिक या कम कुलार्णव की भाँति ही पंचमकारों के विषय में व्याख्याएँ एवं तर्क उपस्थित करते हैं। उदाहरणार्थ, अपने ग्रन्थ 'प्रिंसिपुल्स ऑव तन्त्र' ( भाग २ ) की भूमिका में आर्थर एवालोन ( सर जॉन वुड्रौफ) ने पारानन्दसूत्र ( पृ० १७) में प्रयुक्त 'पीने ' की अलौकिक अर्थ (गुप्त या गूढ़ अर्थ ) में व्याख्या की है -- ' बार- बार पीने पर पृथिवी पर गिर जाने पर पुनः उठ कर पी लेने पर पुनर्जन्म नहीं होता ७९ । उन्होंने व्याख्या की है -- ' इस प्रकार जग जाने पर कुण्डलिनी मुक्ति के बृहद् मार्ग में प्रवेश करती है, वह मार्ग सुषुम्ना स्नायु है और सभी केन्द्रों को एक के उपरान्त एक बेधती सहस्रार में पहुँच जाती है और पुनः उसी मार्ग से मूलाधार चक्र को लौट आती है । इस प्रकार के सम्मिलन से अमृत धार का प्रवाह होता है । साधक उसे पीता है और परम सुख प्राप्त करता है । यही कुलामृत नामक मद्य है जिसे आध्यात्मिक स्तर वाला साधक पीता है...।' आध्यात्मिक वर्ग के साधक के विषय में तन्त्र का कथन है--' पीत्वा पीत्वा विद्यते । षट् चक्र साधना की प्रथम अवस्था में साधक बहुत देर तक अपनी साँस रोक कर शक्ति के प्रत्येक केन्द्र में धारणा एवं ध्यान का अभ्यास नहीं कर पाता । वह कुण्डलिनी को सुषुम्ना में अपने कुम्भक की शक्ति से अधिक देर तक नहीं रख सकता । अतः परिणामतः उसे स्वगिक अमृत का पान करने के उपरान्त पृथिवी पर अर्थात् उस मूलाधार पर उतर
७७. आमूलाधारमाब्रह्मरन्धं गत्वा पुनः पुनः । चिच्चन्द्र कुण्डली शक्तिसामरस्य सुखोदयः ॥ व्योमपंकजनिस्यन्दसुधापानरतोनरः । सुधापानमिदं प्रोक्तमितरे मद्यपायिनः ॥ पुण्यापुण्य-पशुं हत्वा ज्ञानखङ्गेन योगवित् । परेलयं नयेच्चित्तं पलाशी स निगद्यते ॥ मनसा चेन्द्रियगणं संयम्यात्मनि योजयेत् । मत्स्याशी स भवेद्देवि शेषाः स्युः प्राणिहिंसकाः ॥ अप्रबुद्धा पशोः शक्तिः प्रबुद्धा कौलिकस्य च । शक्तिं तां सेवयेद्यस्तु स भवेच्छक्ति सेवकः ॥ पराशक्त्यात्ममिथुनसंयोगानन्दनिर्भरः । य आस्ते मैथुनं तत् स्यादपरे स्त्रीनिषेवकाः ।। कुलार्णव० (५।१०७-११२ ) । चौथा तत्त्व मुद्रा है, किन्तु यह शब्द बहुधा साधक से सम्बन्धित शक्ति के लिए प्रयुक्त होता है।
७८. पलाशी का अर्थ है 'पल को खाने वाला' या 'पल का आनन्द लेने वाला' । पल अर्थ है 'मांस' । 'पल' 'पर' (सर्वोच्च) के लिए भी प्रयुक्त होता है क्योंकि 'र' एवं 'ल' उच्चारण-स्थान से एक ही हैं और 'अश्' धातु, का अर्थ 'पहुँचना' एवं 'खाना' दोनों होता है । 'मत्स्याशी' का शाब्दिक अर्थ है 'मत्स्य' को खाने वाला', किन्तु अलौfor व्याख्या में 'मत्स्य' 'मनस्' (मन) + 'स्य' के लिए है जो 'संयम' का प्रतिनिधित्व करता है ।
७६. जीवन्मुक्तः पिबेरेवमन्यथा पतितो भवेदिति । पुनः पीत्वा पुनः पीत्वा पतित्वा धरणी तले । उत्थाय च पुनः पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।। पारानन्दसूत्र ( पृ० १७, सूत्र ८१-८२ ) ।
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