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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
(विष्य, व्यक्ति जो श्वेता के समान होता है )। बहुत-से तन्त्र-ग्रन्थों के अनुसार मद्य का अर्थ सुरा एवं उसका प्रतिनिधि , यथा नारियल का जल या कोई पेय पदार्थ; इसका अर्थ वह मत्त करने वाला ज्ञान भी है जो मोग-क्रियाओं के उपरान्त प्राप्त होता है। जिसके द्वारा साधक बाह्य संसार के लिए एक प्रकार से संज्ञा शुन्य हो जाता है। मांस वह कर्म है जिसके द्वारा साधक अपने एवं अपने कर्म को भगवान शिव को समपित कर देता है । मत्स्य (जिसके प्रथम भाग 'मत' का अर्थ होता है 'मेरा') वह मानस-स्थिति है जिसके द्वारा साधक प्राणियों के सुख एवं दुःख से सहानुभूति रखता है । मैथुन मूलाधारचक्र में शक्ति कुण्डलिनी (मनुष्य की देह में स्थित नारी) में तथा सहस्रारचक्र में परम शिव का मस्तिष्क के सर्वोच्च केन्द्र में सम्मिलन है और वह सहस्रार से चूने वाले मधुर-रस की धार है। कुछ लोगों के मत से विजया या भंग ही मद्य है। महानिर्वाण ० (८११७० एवं १७३) का कथन है कि मधु के लिए 'मधुर-त्रय' एवं मैथुन के लिए देवी की प्रतिमा के चरणों का ध्यान एवं वांछित मन्त्र का जप रखा जा सकता है । कौलावलीनिर्णय (३।३) ने निर्भय होकर कहा है कि यदि व्यक्ति विजया (भंग) छान (पी) कर ध्यान में लगता है तो वह ध्यानमन्त्र में वर्णित देवी के आकार का साक्षात् दर्शन करता है । कौलज्ञाननिर्णय एवं भास्करराय (ललितासहस्रनाम की टीका में) ऐसे तन्त्रों का कथन है कि जब कुण्डलिनी योगी द्वारा जगा ली जाती है और वह सहस्रार चक्र में प्रविष्ट हो जाती है तो वहाँ से (जहाँ बीजकोश में चन्द्र का निवास है) अमृत चूने लगता है, जो आलंकारिक रूप से मद्य कहलाता है । कुलार्णव ने सर्वप्रथम उद्घोष किया है (१।१०५-१०७)--'मुक्ति का उदय न तो वेदाध्ययन से होता और न शास्त्रों के अध्ययन से; इसका उदय केवल ठीक ज्ञान से होता है, आश्रम मोक्ष के साधन नहीं और न दर्शन ही ऐसे हैं और न शास्त्र ही; यह ज्ञान ही कारण है; गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान ही मुक्ति प्रदान करता है, अन्य विद्याएँ मात्र हास्यास्पद हैं। इसके उपरान्त वेदान्ती ढंग से ऐसा कहा गया है (१११११-११२)-'दो शब्द (क्रम से) बन्धन या मुक्ति की ओर ले जाते हैं, यथा-(यह) मेरा (है) या 'मेरा कुछ भी नहीं है। व्यक्ति यह सोचकर कि 'यह मेरा है' बन्धन में पड़ता है और जब उसे इसका ज्ञान हो जाता है कि 'मेरा कुछ भी नहीं है तो वह मुक्त हो जाता है। वही उचित कर्म है जिससे व्यक्ति बन्धन में नहीं पड़ता, वही वास्तविक ज्ञान है जो मुक्ति प्रदान करता है। इन उच्च विचारों के उपरान्त वही तन्त्र (२१२२-२३ एवं २६) कौल सिद्धान्त पर आ जाता है । 'वह व्यक्ति जो योगी है, (सामान्यतः) जीवन का उपभोग नहीं करता, और जो योग नहीं जानता जीवन का उपभोग करता है। किन्तु कौल सिद्धान्त में योग एवं भोग दोनों हैं, अतः यह सभी (सिद्धान्तों) में श्रेष्ठ है; कौल सिद्धान्त में भोग सीधे ढंग से योग हो जाता है, जो (अन्य साधारण लोगों की दृष्टि में) पाप है, वही पुण्य हो जाता है, संसार मोक्ष में परिवर्तित हो जाता है। जिसका मन शिव-पूजा, दुर्गा-पूजा आदि के मन्त्रों से पवित्र हो चुका है उसे कौल ज्ञान प्रकाशित करता है।'
कुलार्णव साधारण लोगों को दो मनों वाला लगता है। जहाँ एक साँस में वह मद्य पीने , मांस खाने की बात कौल सिद्धान्त के अनुयायियों से कह डालता है , उसी ढंग से दूसरे अवसर पर वह मकारों का ढिार्थ उपस्थित करने लगता है (५।१०७-११२)-मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र में पहुंचने पर कुण्डलिनी-शक्ति एवं बुद्धि (चित्, शिव) के रूप में चन्द्र के सम्मिलन का आनन्द उभरता है; मस्तक के होने वाले अमृत के स्वाद पर ध्यान देने वाला व्यक्ति सुधा (अमृत, मद्य) पीता है; अन्य व्यक्ति मात्र
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