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धर्मशास्त्र का इतिहास
कई अर्थ हैं, यथा--गुड़ एवं सिरका का मिश्रण, या नमक एवं खली का मिश्रण या लहसुन एवं इमली का मिश्रण या गेहूं एवं उर्द का मिश्रण; इसी प्रकार मद्य वह नहीं है जो माघवी (महुआ) से बनता है, प्रत्युत यह है कुण्डलिनी के जगाने के प्रयत्न में शक्ति की आह्लादमय अनुभूति ( या रस) । यह मान लिया जा सकता है कि कुछ तान्त्रिक ग्रन्थ एवं लेखक मनुष्यों को तीन वर्गों में बाँटते हैं, यथा -- पशु, वीर (वे जिन्होंने आध्यात्मिक अनुशासन के मार्ग में बड़ी उन्नति कर ली है) एवं दिव्य ( जो देवों के समान हैं ) इन तीन वर्गों के लिए तन्त्र के समर्थक लोग पाँच मकारों की विभिन्न व्याख्याएँ करते हैं । डी० एन० बोस ने अपने ग्रन्थ 'तन्त्रज' देयर फिलॉसफी एण्ड ऑकल्ट सीक्रेट्स' ( पृ०११० १११ ) में बलपूर्वक कहा है कि पंच मकारों के वास्तविक महत्त्व को दुष्ट प्रकृति के लोगों ने जानबूझ कर गन्दा कर डाला है; मद्य वह अमृतमय धारा है जो मस्तिष्क के उस कोश से फूटती है, जहाँ आत्मा का निवास है, मत्स्य का अर्थ है प्राणोच्छ्वासों का अवदमन, मांस का तात्पर्य हैं 'मौन व्रत' तथा मैथुन का अर्थ है 'सृष्टि एवं नाश के कर्मों पर ध्यान' ।
तान्त्रिक लोग अपने प्रयोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण उच्च अर्थ वाले शब्दों में बाँधने के अभ्यासी रहे हैं । पंचमकारों को पञ्च तत्त्व, कुलद्रव्य या कुलतत्त्व कहा गया है । मैथुन को सामान्यत: पंचमतत्त्व कहा जाता है, और वह नारी, जिसके साथ सम्भोग किया जाता है या जो तन्त्रपूजा में पुरुष से सम्बन्धित होती है, शक्ति ( देखिये कुलार्णव ७।३६-४३ एवं महानिर्वाण०, ६।१८-२० ) या प्रकृति या लता कहलाती है और यह विशिष्ट कृत्य 'लतासाधन' ( महानिर्वाण १।५२ ) कहा जाता है । मद्य को तोर्थवारि 'या कारण (८।१६८ एवं ६।१७ ) कहा जाता है । महानिर्वाणतन्त्र ने, जो एक सुधारवादी ग्रन्थ है और कुछ बातों में राजा से मद्यपियों को दण्डित करने को कहता है ( ११।११३ - १२१ ) सुरा की प्रशंसा में कलम तोड़ दी है और उसे द्रवमयीतारा, जीवनिरस्तारकारिणी, भोग एवं मोक्ष की माता तथा विपत्ति एवं रोग को नाश करने वाली कहा है ( ११।१०५ ) । शक्ति-पूजा के लिए पंच तत्त्व अनिवार्य हैं ( महानिर्वाणतन्त्र ५।२१ - २४ एवं कुलार्णव०५। ६८ एवं ७६ ) ७६ | कुछ तन्त्रों में ऐसा आया है कि तत्त्वों के अर्थ में तब अन्तर पड़ जाता है जब सम्बन्धित व्यक्ति तामसिक ( पशु प्रकार का साधक ) होता है या राजसिक (वीर प्रकार का साधक ) होता है या सात्त्विक
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तन्त्र (अध्याय ६ ) एवं आगमसार के अनुसार दिव्यभाव के रूप में अलौकिक अर्थ दिया हुआ है। योगिनीतन्त्र का एक श्लोक यह है : 'सहस्तारोपरि बिन्दौ कुण्डल्या मलेनं शिवे । मैथुनं परमं द्रव्यं यतीनां परिकीर्तितम् ॥ पशु वर्ग के लोगों के लिए, जो शक्ति-पूजकों की निम्न श्रेणी में परिगणित हैं, तत्त्वों के प्रतिनिधि विभिन्न प्रकार के हैं । कौलावलीनिर्णय ( ५।११३-१२३) ने कई एक प्रतिनिधियों का उल्लेख किया है, यथा— एक ब्राह्मण मद्य के स्थान पर ताम्रपात्र में मधु, पीतल के पात्र में गाय का दूध या नारियल का पानी रख सकता है, मांस के अभाव में लहसुन एवं सिरका का प्रयोग हो सकता है, मत्स्य के स्थान पर भैंस या भेंड़ का दूध प्रयोग में लाया जा सकता है तथा मैथुन के स्थान पर भूने हुए फल एवं जड़-मूल प्रयोग में लाये जा सकते हैं । ये व्याख्याएँ ठीक नहीं जँचतीं और इनकी सत्यता पर सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है ।
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७६. कुलद्रव्यंबना कुर्याज्जपयज्ञतपोव्रतम् । निष्फलं तद्भवेद्देवि भस्मनीव यथा हुतम् ॥ ; मन्त्रपूतं कुलद्रव्यं गुरुदेवापितं प्रिये । ये पिबन्ति जनास्तेषां स्तन्यपानं न विद्यते । । कुलार्णव० (५२६६ एवं ७६ ) । 'स्तन्यपान न विद्यते' का अर्थ है कि वह पुनः नहीं जन्म लेता । कुलार्णव० (५।७६ - ८०) में आदेश है : 'सुरा शक्तिः शिवो मांसं --- तद्भोक्ता भैरव स्वयम् । तयोरैक्यसमुत्पन्न आनन्दो मोक्ष उच्यते ॥ आन्नदं ब्रह्मणो रूपं तच्च देहे व्यवस्थितम् । तस्याभिव्यञ्जकं मद्यं योगिभिस्तेन पीयते ॥'
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