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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
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ग्योपनिषद् (५।१०१६) ने सुरापान करने वाले को पंच महापापियों में गिना है। अत: सौत्रामणी के सुरादान (हवि) तथा देवी को मद्य देने के उपदेश में (जिसकी व्यवस्था तन्त्रों में है) कोई साम्य नहीं है । इस प्रकार अथर्ववेद में जादू के कृत्यों से सम्बन्धित संकेत से भी कोई सहायता नहीं प्राप्त हो सकती । उस काल से समाज बहुत आगे आ चुका था और मनु (११।६३) ने अभिचार (अर्थात् किसी को मारने के लिए श्यनयाग के समान जादू की क्रिया) एलं मुलकर्म (जड़ी-बूटियों तथा मन्त्रों से किसी व्यक्ति या स्त्री को अपने वश में करना) को उपपातक ठहरा दिया था। महाभारत (उद्योगपर्व, ५६१५) से सम्बन्धित संकेत भी भ्रामक हैं। महाभारत-काल में मद्यसेवन होता था किन्तु तन्त्रों के समान धार्मिक कृत्य के अंश के रूप में नहीं। इसी प्रकार तन्त्रों में मद्यसेवन के पक्ष में मार्कण्डेय तथा अन्य पुराणों का जो हवाला दिया गया है वह भी व्यर्थ ही है, क्योंकि पुराणों के वे अंश तब लिखे गये थे या क्षेपक रूप में तब जोड़े गये जब हिन्दू समाज के कुछ अंशों पर तान्त्रिक क्रियाओं का प्रभाव प्रगाढ़ रूप में पड़ चुका था। महाव्रत ७४ में मैथुन की ओर जो संकेत किया गया है वह अत्यन्त झामक एवं अविवेकपूर्ण है । कुलार्णव एवं गुह्यसमाज ऐसे तन्त्रों में केवल साधक को अलौकिक शक्तियों एवं उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए मैथन का आचरण करना पड़ता था किन्तु महाव्रत में मैथुन का कर्म अभ्यागतों द्वारा निर्देशित है (न कि यजमान या किसी पुरोहित द्वारा) और वह भी केवल प्रतीकात्मक है न कि देवी को प्रसन्न करने के लिए धार्मिक कृत्य के रूप में स्वयं साधक द्वारा किये जाने वाले मंथन के अनरूप है। यहाँ तक कि पश्चात्कालीन सूधारवादी तन्त्र ग्रन्थ महानिर्वाणतन्त्र ८१७४-१७५) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उन पंच तत्त्वों पर, जिन्हें साधक एकत्र करता है (यथा-मद्य, मांस आदि) सौ बार 'आं, ह्रीं, कों, स्वाहा' नामक मन्त्र का पाठ होना चाहिए, साधक को यह विचार करना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु ब्रह्म से उत्पन्न है, उसे आँखें बन्द करनी चाहिए और उन तत्त्वों को काली को समर्पित करना चाहिए, और फिर स्वयं खाना-पीना चाहिए।
___अलौकिक शक्तियों एवं मुक्ति की प्राप्ति के लिए मकारों की व्यवस्थाओं से जनता संक्षुब्ध हो चुकी थी और तन्त्रों की अवमानना आरम्भ हो गयी थी, अत: शक्तिसंगमतन्त्र (१५५५-१६०७ ई०) ऐसे पश्चात्कालीन हिन्दू तन्त्र ग्रन्थों ने प्रतीकात्मक व्याख्याएँ करनी आरम्भ कर दीं। उनका कथन है कि मद्य, मुद्रा, मैथुन आदि शब्द सामान्य अर्थ में नहीं प्रयुक्त हैं, प्रत्युत वे विशिष्ट गूढ़ अर्थ में प्रयुक्त हैं७५ । उदाहरणार्थ, मुद्रा के
७३. तरेष श्लोकः । स्तेनो हिरणस्य सुरां पिबेश्च गुरोस्तल्पमावसन्ब्रह्महा चंते पतन्ति चत्वारः पंचम, पूचाचरंस्तैरिति । छा० उप० (५।१०६)।
७४. सत्र के एक दिन पूर्व महायत होता है। देखिये इस महाग्रन्थ का खण्ड (जिल्द) २।।
७५. गुडाकरसो देवि मुद्रा तु प्रथमा मता । पिण्याकं लवणं देवि द्वितीया परिकीर्तिता । लशुनं तित्तिड़ी चैव तृतीया परिकीर्तिता। गोधूममाषसम्भूता सुन्दरी च चतुर्थिका । शक्त्यालापः पंचमी स्यात्पंचमुद्राः प्रकीर्तिताः॥ शक्तिसङगम, ताराखण्ड, ३२, १३-१५; देखिये महानिर्वाणतन्त्र (६६-१०) जहाँ चावल, जौ, या गेहूँ का घी के साथ बना व्यंजन या भूना हुआ अन्न मुद्रा कहा गया है । न मद्यं माधवीमा मद्यं शक्तिरसोद्भवम् । सुषुम्ना शंखिनी मुद्रा उन्मन्यनुत्तमं रसः ।।' सामरस्यामृतोल्लासं मैथुनं च सदाशिवम् । महाकण्डलिनी शक्तिस्तद्योगार्थं महेश्वरि।... संयोगामृतयोगेन कुण्डल्युत्थानकारणात् । शक्तिसंगम-ताराखण्ड ३२, २५-२७, ३२। देखिये 'शक्ति एण्ड शाक्त' (पृ० ३३६-३४०) जहाँ पर मद्य, मांस, मत्स्य एवं मथुन का योगिनी
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