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________________ × धर्मशास्त्र का इतिहास को दिया जाता था, किन्तु ऋग्वेद में सुरा का उल्लेख केवल छह बार हुआ है और यह कहीं भी स्पष्ट रूप से नहीं उल्लिखित है कि यह देवों को धार्मिक रूप में अर्पित की जाती है; बल्कि वरुण के एक स्तोत्र में, सुरा को पापमय कहा गया है और उसे क्रोध एवं जुए के समकक्ष में रख दिया गया है ( ऋ० ७७८६।६ : न स्वो दक्षो वरुण ध्रुतिः सा सुरा मन्युविभीदको अचित्तिः) । तन्त्रवाद के समर्थन के उत्साह में आर्थर एवालोन ( सर जॉन वुड्रोफ्) ने कुछ सरल शब्दों की भ्रामक व्याख्या विवेकशून्यता प्रदर्शित की है । 'प्रिंसिपुल्स आव तन्त्र' की भूमिका ( पृ० ७) में उन्होंने ऋ० ( १ । १६६ । ७ ) को उद्धृत किया है -- ' अर्चन्त्यर्क मदिरस्य पीत ये' और उसका अनुवाद यों किया है -- ' मदिरा ( मद्य) पीने से पहले सूर्य की पूजा करते हैं ।' यहाँ मंदिर ( मदिरा नहीं) शब्द आया है, यह विशेषण है और इसका अर्थ है 'आनन्दप्रद' या 'आह्लादक' । 'मदिरा' शब्द ऋग्वेद में कहीं भी नहीं आया है, किन्तु विशेषण के रूप में 'मंदिर' शब्द १६ बार आया है और सामान्य रूप (बहुत कम स्पष्ट व्यंजना के रूप ) से यह सोम, इन्दु, अंशु, रस या मधु की विशेषता बताता है । उपर्युक्त मन्त्रभाग में 'पहले' के अर्थ में कोई शब्द नहीं आया है । इस अंश का अर्थ है -- वे ( पूजा करने वाले या मस्त लोग) उस (इन्द्र) की पूजा करते हैं जो स्तुति के योग्य है ( और मरुतों का एक मित्र है ) । जिससे वह आहलादमय (सोम) को पीने के लिए आये । 'मदिरा' शब्द ( मद्य के अर्थ में ) वैदिक काल के किसी भी शुद्ध ग्रन्थ में नहीं आया है । यह सर्वप्रथम महाभारत में प्रयुक्त हुआ । कुछ तन्त्र समर्थक लोग इन्द्र के सम्मान में की जाने वाली सौत्रामणी दृष्टि में सुरा के प्रयोग की चर्चा करते हैं किंतु परिस्थितियाँ विलक्षण हैं। सौत्रामणी बहुत से यज्ञों में एक है और इसके सम्पादन के अवसर विरल होते थे; इसका सम्पादन राजसूय के अन्त में होता था और अग्निचयन के अन्त में भी होता था जबकि पुरोहित अधिक सोम पी लेने के कारण वमन कर देता था । अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सौत्रामणि में हवन की गयी सुरा का अवशेष यज्ञ में रत पुरोहित द्वारा नहीं ग्रहण किया जाता था, प्रत्युत एक ब्राह्मण को इसे पीने के लिए शुल्क देकर बुलाया जाता था और यदि कोई ब्राह्मण नहीं मिलता था तो उसे चींटियों के ढूह पर गिरा दिया जाता था । इस विषय में हमने इस ग्रन्थ के खण्ड ( जिल्द २ ) में पढ़ लिया है । काठकसंहिता में एक मनोरंजक वक्तव्य आया है७२ - "अतः एक अपेक्षाकृत बूढ़ा (ज्येष्ठ) व्यक्ति एवं एक कम अवस्था वाला व्यक्ति, पतोहू, श्वसुर सुरा पीते हैं और आपस में आलाप करते रहते हैं; विचारहीनता पाप है; अत: एक ब्राह्मण इस विचार से सुरा नहीं पीता कि 'अन्यथा ( यदि मैं इसे पीऊँ), मैं पापी हो जाऊँगा'; अतः यह क्षत्रिय के लिए है; ब्राह्मण से ऐसा कहना चाहिए कि सुरा, यदि क्षत्रिय द्वारा पी जाय, तो उसे हानि नहीं पहुँचाती ।” उपर्युक्त वक्तव्यों से प्रकट होता है कि न केवल पुरोहित लोग ही सौत्रामणि में भी सुरा पीने को मिलते थे, प्रत्युत काठकसंहिता के काल तक उसे पीने के लिए शुल्क पर भी ब्राह्मण का मिलना कठिन था। वाजसनेयीसंहिता ( १६ । ५ ) ने भी सौत्रामणी की ओर ही संकेत किया है, अन्य यज्ञों की बात नहीं उठायी है। मन्त्र यह है—–'ब्रह्म क्षत्रं पवते तेज इन्द्रियं सुरया सोमः सुत आसुतो मदाय', जिसका अर्थ है--'सोम जब सुरा से मिश्रित हो जाता है तो कड़ा पेय हो जाता है और उससे नशा (मद ) हो जाता है । छन्दो ७२. तस्माज्ज्ययाश्च कनीयांश्च स्नुषा श्वसुरश्च सुरां पोत्वा सह लालपत आसते । पाप्मा व माव्यं तस्माद् ब्राह्मणः सुरां न पिबति पाप्मना नेत्संसृज्या इति तदेतत् क्षत्रियाय ब्राह्मणं बूयानं सुरा पीता हिनस्ति । काठकसंहिता (१२/१२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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