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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र ३७ भावना व्यक्त है । सम्भवतः एक अन्य प्रवृत्ति भी रही होगी । सामान्य जन बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट होते चले जा रहे थे । हिन्दू तान्त्रिक सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने उन्हें हिन्दू-सीमा के अन्तर्गत ही रहने देना चाहा। सामान्य जन मांस-मदिरा का प्रयोग करते हैं, उन्हें बताया गया कि यदि वे तान्त्रिक गुरुओं एवं आचारों का अनुसरण करेंगे तो मांस एवं मद्य में चूर रहने पर भी उच्चतर आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करेंगे। इसके मूल में धारणा यह थी कि शक्ति ही सब कुछ है और सब के लिए है; भोग का परित्याग आवश्यक नहीं है, क्योंकि मनुष्य देवी या शिव का अंश है । भोग का ऊर्ध्वायन होना चाहिए, बस इतना ही कौलशास्त्र में पर्याप्त है। तान्त्रिकों ने संयम एवं तप के योग के स्थान पर भोग का योग स्थापित करना चाहा । वाममार्ग के आचारों में प्रवृत्त साधक से यही आशा की जाती है कि वह आत्मा के अहंकारमय तत्त्वों का नाश कर देगा ७० । महानिर्वाणतन्त्र तथा कुछ अन्य तन्त्रों ने कामुक अनैतिकता एवं संकुलता के ज्वार को बाँधने का भी प्रयास किया है। उदाहरणार्थ, परशुरामकल्पसूत्र के टीकाकार रामेश्वर का कथन है कि जो जितेन्द्रिय नहीं है उसे कौलमार्ग का अधिकार नहीं है ( पृ० १५३ ) । यह महानिर्वाणतन्त्र के इस कथन के प्रत्यक्ष विरोध में पड़ता है कि ब्राह्मणों से लेकर अस्पृश्य तक सभी लोग कौल आचारों के अधिकारी हैं" । आजकल के कुछ ऐसे लोग, जो तन्त्रवाद का छद्म रूप से समर्थन करते हैं, कहते हैं कि गुह्यसमाज में जो निर्देश दिये हुए हैं, तथा वज्रयान के अनुयायियों द्वारा पालित होने वाले जो नियम हैं, वे केवल उन योगियों के लिए हैं जिन्होंने यौगिक पूर्णता का कुछ अंश प्राप्त कर लिया है । किन्तु स्पष्ट उत्तर यह है--' किन्तु केवल उस व्यक्ति को छोड़कर ( जो साधनारत है) कौन बता सकता है कि उसने थोड़ी-बहुत आध्यात्मिकता प्राप्त कर ली है ? और यदि यह मान भी लिया जाय कि सारे निर्देश योगियों के लिए ही हैं तो यही भारी-भरकम ढंग एवं भाषा में कहने की क्या आवश्यकता पड़ी थी कि एक वज्रयानी योगी वैसा ही आचरण करे जिसे साधारण लोग कदाचार कहते हैं ?' प्राचीन एवं मध्यकालीन तन्त्रों के समर्थकों की बातों का उत्तर देने के लिए यह उचित स्थान नहीं है । किन्तु दो एक बातों का उत्तर दे देना आवश्यक है, क्योंकि यदि उनकी आलोचना नहीं की गयी तो लोगों में भ्रामक धारणा उत्पन्न हो सकती है । सर जॉन वुड्रौफ ने 'प्रिंसिपुल्स आव तन्त्र' ( भाग २, पृ० ६) में कहा है कि मांस, मत्स्य एवं मदिरा का प्रयोग वैदिक काल में सर्वसाधारण था तथा महाभारत एवं पुराणों में ( यथा कालिका, मार्कण्डेय, कर्म आदि) मद्य, मांस एवं मत्स्य के सेवन की ओर संकेत हैं । यह कथन एक विशेष समर्थन है और गुमराह ( पथभ्रष्ट ) करने वाला है। प्रश्न है क्या वह सुरा जो प्रतिदिन के या आवधिक यज्ञों में देवों को अर्पित की जाती थी, ऋग्वेद या किसी अन्य वेद में आहुति कही गयी थी ? वैदिक युग में मद्य का ज्ञान था या उसका सेवन होता भी रहा हो, किन्तु बात वास्तव में यह जानने की है कि उन दिनों सोम एवं सुरा में अन्तर किया जाता था । देखिए शतपथ ब्राह्मण ( ५ | ११५२८ : सत्यं वै श्रीज्योतिः सोमोऽनृतं पाप्मा तमः सुरा । ) : 'सोम सत्य; श्री ( समृद्धि ), ज्योति (प्रकाश) है तथा सुरा असत्य, कष्ट एवं अंधकार है । सोम का उल्लेख ऋग्वेद में सैकड़ों बार हुआ है और नवाँ मण्डल इसकी प्रशस्ति के लिए ही सुरक्षित-सा है, और सोम देवों ७०. यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षो यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोगः । श्री सुन्दरी सेवन तत्पराषां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव ॥ कौलरहस्य से हंसविलास ( पृ० १०४) द्वारा उद्धत । ७१. विप्राद्यन्त्यजपर्यन्ता द्विपदा येऽत्र भूतले । ते सर्वेऽस्मिन्कुलाचारे भवेयुरधिकारिणः । महानिर्वाणतन्त्र (१४।१८४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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