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________________ ३६ धर्मशास्त्र का इतिहास नाटककार की रचना मोहराजपराजय में पात्र 'कौल' है जो अपने इस सिद्धान्त की घोषणा करता है कि वह बिना किसी मनस्ताप के प्रतिदिन मांस खाता है, मद्य पीता है और मन को पूरी छूट दिये रहता है६६ । अपरार्क ने एक श्लोक उद्धृत किया है, जिससे स्पष्ट है कि बहुत-से सम्प्रदायों के बीच में एक संगति में रहना कठिन है-- 'कोई व्यक्ति हृदय से कौल हो सकता है, बाह्य रूप से वह शैव-सा प्रतीत हो सकता है और वह अपने वास्तविक आचरण में वैदिक कृत्यों का अनुसरण कर सकता है। व्यक्ति को सार ग्रहण करके नारिकेलफल की भाँति रहना चाहिए'१७ । लगता है कि उच्च विद्वान् एवं कवि तान्त्रिक पूजा के प्रति कुछ अनिश्चित भावना रखते थे। मिथिला के महान् कवि विद्यापति अपने भक्तिपरक गीतों से जहाँ वैष्णव हैं, वहीं उन्होंने शंवसर्वस्वसार नामक ग्रन्थ भी लिखा है (अतः वे शैव कहे जा सकते हैं), दुर्गाभक्तितरंगिणी भी लिखी है (जो उन्हें शाक्त भी सिद्ध करती है) और लिखा है एक तान्त्रिक ग्रन्थ६८ । विद्यापति की 'पुरुषपरीक्षा का प्रथम श्लोक 'आदिशक्ति' का आह्वान करता है। बंगाल एवं आसाम में शाक्त सिद्धान्तों का बड़ा प्राबल्य रहा है और अब भी वहाँ काली-पूजा प्रचलित है, किन्तु बल्लालसेन नामक विख्यात बंगाली राजा ने अपने दान-सम्बन्धी महान् ग्रन्थ 'दानसागर' में देवीपुराण को कुत्सित समझ कर छोड़ दिया है। यह सम्भव है कि पञ्च मकारों के प्रवर्तक तान्त्रिक या शाक्त सम्प्रदाय ने भगवान या परमात्मा के उस भयंकर स्वरूप की अवमानना की जो मानवों एवं पदार्थों के भाग्यों पर शासन करता है, जो कभी-कभी सच्चरित्र लोगों को भी भीषण दुखों में पलने देता है; सम्भवतः इसी से इस सम्प्रदाय ने परम्परागत नैतिक भावना एवं सामाजिक सदाचरणों की अवज्ञा कर दी और ऐसी आशा की कि यौगिक आचारों से उच्च मानसिक शक्तियाँ एवं आनन्द की प्राप्ति हो जायगी। देखिए डा० बी० भट्टाचार्य की भूमिका (गुह्यसमाज०, पृ० २२), जहाँ ऐसी ही ६६. मोहराजपराजय (गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज, बड़ौदा) पृ० १०० में कौल कहता है : 'खाद्यते मांसमनुदिनं पोयते मद्यं च मुक्त संकल्पम् । अनिवारित मनः प्रसर एष धर्मो मया दृष्टः।। (प्राकृत श्लोक का यह संस्कृत रूप है)। यह नाटक ११७२-११७५ ई० में लिखा गया था। ६७. अन्तः कौलं बहिः शैवं लोकाचारे तु वैदिकम । सारमादाय तिष्ठेत्त नारिकेल फलं यथा। अपराक (पृ० १०)। नारिकेल फल के तीन स्वरूप हैं : पहला बाहरी कठोर कोश, दूसरा वह अंश जो कोश के भीतर कोमल एवं स्वादयुक्त होता है और तीसरा वह अंश जो जल होता है। कुलार्णवतन्त्र में आया है : 'अन्तःकौलो बहिः शवो जनमध्ये तु वैष्णवः । कौलं सुगोपयेदेवि नारिकेल फलाम्बुवत् ॥ (१११८३) । शवों एवं शाक्तों दोनों का साम्प्रदायिक चिह्न है त्रिपुण्ड (पवित्र विभूति, अथवा भस्म को तीन समानान्तर रेखाएँ, जो मस्तक पर एक आँख से दूसरी आँख तक अंगूठे एवं कनिष्ठिका को छोड़ अन्य तीन अंगुलियों से खींची जाती हैं। देखिये बृहज्जाबालोपनिषद् (४।१०-११), देवी भागवत (११११।१७-२३)। ६८. देखिये डी० सी० भट्टाचार्यकृत निबन्ध (जर्नल आव गंगानाथ झा रीसर्च इंस्टीच्यूट, जिल्द ६, पृ० २४१-२४७) 'विद्यापतिस वर्क ऑन तन्त्र' । पुरुष परीक्षा का प्रथम श्लोक (दरभंगा संस्करण, १८८८) यह है'ब्रह्मपि यां नौति नुतः सराणां (सुराणां ?) यामचितोप्यर्चयन्तीन्दूमौलिः ॥ यां ध्यायतिध्यानगतोपि विष्णुस्तामादिशक्तिं शिरसा प्रपद्ये ॥' । ६६. नानावेश धराः कौला: कुलाचारेषु निश्चलाः । सेवन्ते त्वां कुलाचौरनहि तात् बाधते कलिः॥ महानिर्वाणतन्त्र (४॥६३)। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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