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________________ ३५ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र परिपूर्ण जीवन से मुक्ति प्राप्त होती है'। राजतरंगिणी ( १२ वीं शती) में भी तान्त्रिकों एवं उनके कर्मों की ओर संकेत मिलता है । ५।६६ में कल्हण का कथन है ६ ३ कि कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा के शासन काल में मट् कल्लट ऐसे सिद्ध लोगों ने (जो अलौकिक शक्तियाँ रखते थे, यथा अणिमा) संसार के कल्याण के लिए जन्म लिया था। कल्हण ने एक अच्छे राजा यशस्कर (६३६-६४८ ई०) के शासन का वर्णन करते हुए लिखा है६४ कि उसके राज्य में गृहिणियाँ गुरुदीक्षा के कृत्य में देवताओं के रूप में नहीं दीख पड़ती थीं, और न अपने पतियों की शीलश्री ( अच्छे चरित्र) से दूर रहने के लिए अपने सिर को हिलाती ही थीं । कश्मीर का राजा कलश (१०६३ - १०८६ ई०) अमरकण्ठ के पुत्र प्रमदकण्ठ का शिष्य हो गया था । प्रमदकण्ठ अच्छा ब्राह्मण था, किन्तु कलश, जो स्वभाव से 'दुष्ट था, अपने 'गुरु द्वारा बुरे आचरणों में लिप्त करा दिया गया, और वह ( राजा कलश) अच्छी या बुरी स्त्रियों में भेद नहीं करता था । इस विषय में कल्हण ने लिखा है -- 'मैं इस ( कलश के ) गुरु की गत विकल्पता का क्या वर्णन करूँ, जब कि अन्य विकल्पों का त्याग करके उसने अपनी पुत्री के साथ व्यभिचार किया ? '६५ । इससे स्पष्ट है कि कश्मीर में ११ वीं शती में कुछ ऐसे तान्त्रिक गुरु थे, जो गुह्यसमाजतन्त्र द्वारा बौद्ध योगियों के लिए व्यवस्थित आचरणों का अक्षरशः पालन करते थे । कुमारपाल के उत्तराधिकारी अजयदेव के शासन काल में यशपाल नामक ६३. अनुग्रहाय लोकानां भट्ट श्री कल्लटादयः । अवन्ति वर्मणः काले सिद्धा भुवमवातरन् ॥ राजत० (५| ६६) । अवन्तिवर्मा ने सन् ८५५ से ८८३ ई० तक राज्य किया। काश्मीरी शैववाद में कल्लट एक महान् नाम से विख्यात हैं। यह द्रष्टव्य है कि बौद्धधर्म की वज्रयान - शाखा में ८४ सिद्ध पुरुषों का उल्लेख है जो ७ वीं से ६ वीं तक हुए थे । देखिये बुद्धिस्ट इसोटेरिज्म ( पृ० ३४) एवं भिक्षु राहुल सांकृत्यायन का निबन्ध 'दि ओरीजिन आव वज्रयान एण्ड दि ८४ सिद्धज़' (जे० ए०, जिल्द २२५, १६३४, पृ० २०६ - २३०) जहाँ पृ० २२०. में ८४ सिद्धों की एक लम्बी सूची है जिसमें लूइपा से भलिपा के नाम, उनकी जातियों, स्थितियों, उत्पत्तिस्थान, उनमें से 5वीं शती के आगे के कुछ के समकालीनों के नाम के साथ कहा गया है। देखिये इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली (जिल्द ३१, पृ० का 'मत्स्येन्द्रनाथ एण्ड हिज योगिनी कल्ट' नामक लेख है । २२५ दिये गये हैं । मत्स्येन्द्रनाथ को 'लूइपा ३६२ - ३७५ ) जहाँ डा० करमबेल्कर ६४. नादृश्यन्त च गेहिन्यो गुरुदीक्षोत्थदेवताः । कुर्वाणा भर्तृशील श्री निषेधं मूर्धधूननैः ॥ राजत० ( ६ । १२) । इससे प्रकट होता है कि तान्त्रिकों में लिंग के विषय में समान भावना के कारण स्त्रियाँ तान्त्रिक कृत्यों में गुरु बनायी जाती थीं। देखिये प्राणतोषिणी ( पृ० १७६), जहाँ पर स्त्री गुरु की अर्हताएं दी हुई हैं, और देखिए पृ० ५४०, जहाँ गुरु की पत्नी की पूजा तथा अपने अधिकार से गुरु के रूप में पूजित होने वाली स्त्री का उल्लेख है । गुरु एवं उसके पूर्वजों की पूजा शिष्यों द्वारा इस प्रकार होती थी मानो वे (शिष्य) यजमान हों। जब यजमान (शिष्य) लोग गुरुओं के रूप में पूजित स्त्रियों के पतियों की प्रशंसा करते थे तो वे असहमति में अपना सिर हिलाती थीं, जिसका तात्पर्य यह था कि वे स्पष्ट रूप से अपने पतियों के चरित्र की आलोचना करती थीं। कल्हण का कथन है कि यशस्कर के शासन काल में ऐसा नहीं होता था । यशस्कर ने तान्त्रिकों के आचारों को अवश्य बन्द करा दिया होगा और स्त्रियों को गुरु बनने का अवसर ही नहीं मिलता रहा होगा । ६५. गुरोर्गतकिकल्पत्वं तस्यान्यत्किमिवोच्यताम् । त्यक्तशकः प्रववृते स्वसुता सुरतेपि यः ॥ राजत ० (७२७८) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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