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________________ ૨૪ धर्मशास्त्र का इतिहास विष्णु एवं ब्रह्मा के नेतृत्व में देवता लोग भी घोषित करते हैं कि मोक्ष ध्यान, वेदपाठ एवं वैदिक यज्ञों से प्राप्त होता है, केवल उमा के पति ने इसे देखा ( जाना) कि मोक्ष की प्राप्ति सुरारसपान एवं नारियों के साथ संभोग करने से हो सकती है । यशस्तिलकचम्पू (सन् ६५६ ई०) ने शैवागम के दक्षिण एवं वाम मार्गों की ओर निर्देश करने के उपरान्त महाकवि भास का एक श्लोक उद्धृत किया है - 'व्यक्ति को सुरा पीनी चाहिए, प्रियतमा के मुख को देखना चाहिए, स्वभाव से सुन्दर और जो अविकृत न हो वैसा वेष धारण करना चाहिए, वह पिनाकपाणि (शिव) दीर्घायु हों, जिन्होंने मोक्ष का ऐसा मार्ग ( सर्वप्रथम ) ढूँढ़ निकाला '६१ । क्षेमेन्द्र ( ११ वीं शती के तीसरे चरण में) के दशावतारचरित में एक श्लोक है जो तान्त्रिक गुरुओं एवं उनके अनुयायियों के कर्म पर प्रकाश डालता है ६२ -- -' गुरुओं की घोषणा है कि एक ही पात्र से भाँति-भाँति के शिल्पियों, यथा धोबियों, जुलाहों, चर्मकारों, कापालिकों द्वारा मद्य पीने से, चक्रपूजा से, बिना किसी विकल्प के स्त्रियों के साथ संभोग करने से तथा उत्सवों से ६०. मौलिक श्लोक ( ११२२-२४) प्राकृत में हैं । उनके संस्कृत रूप यों हैं : मन्त्राणां तन्त्राणां न किमपि जाने ध्यानं च नो किमपि गुरुं प्रसारात् । मद्यं पिबामो महिलां रमामो मोक्षं च यामो कुलमार्गलग्नाः ॥ रण्डा चण्डा दीक्षिता धर्मदारा मद्यं मांसं पीयते खाद्यते च । भिक्षा भोज्यं चर्मखण्डं च शय्या कौलो धर्मो कस्य नाभाति रम्यः ॥ भुक्ति भणन्ति हरिब्रह्म मुखा आप देवा ध्यानेन वेदयपठनेन ऋतुक्रियाभिः एकेन केवल मुमादयितेन दृष्टो मोक्षः समं सुरतकेलि सुरारसैः ॥ यह संभव है कि भैरवानन्द द्वयर्थक हो । पारानन्दसूत्र ने बहुत-से तान्त्रिक गुरुओं का उल्लेख किया है जिनके नाम आनन्द से अन्त होते हैं, यथा अमृतानन्द ( पृ० ५४, ७३ ), उन्मादानन्व ( पृ० ५४, ७२, ७६), ज्ञानानन्द ( पृ० ५४, ७३, ६१), देवानन्द ( पृ० ४४ ), परानन्द ( पृ० ७२, ६१७, जो पारानन्द सूत्र के लेखक हैं), मुक्तानन्द ( पृ० ५४ ), सुरानन्द ( पृ० ५४, ७०, ७२ ) । बहुत-से गुरुओं के नाम में 'भैरव' भी आया है और ऐसे नाम पारानन्दसूत्र में पर्याप्त आये हैं, यथा-आकाशभैरव (ई बार ), उन्मत्त भैरव (१७ बार), काल भैरव (११ बार ) । पृ० ६६ में भैरव नाम एक लेखक का भी आया है। राजशेखर ने इन तान्त्रिक गुरुओं का, जिन्होंने मकारों का समर्थन किया है, बड़ा उपहास किया है । पारानन्द सूत्र सम्भवतः ६०० एवं १२०० ई० के बीच में कभी प्रणीत हुआ होगा ( भूमिका, पृ० १२ ) । परशुरामकल्पसूत्र ऐसा नाम देते हैं जिसका अन्त आनन्द ( १/४० ) में ऐसी व्यवस्था है कि दीक्षा के उपरान्त गुरु शिष्य को tre से हो । यही बात महानिर्वाण० (१०।१८२ ) में भी पायी गयी है। ६१. इममेव च मार्गमाश्रित्याभाषि भासेन महाकविना । पेया सुरा प्रियतमा मुखमीक्ष्यणीयं ग्राह्यः स्वभावललितोऽविकृतश्च वेषः । येनेदमीदृशमदृश्यत मोक्ष वर्त्म दीर्घायुरस्तु भगवान् स पिनाकपाणिः । यशस्तिलकचम्पू ( पृ० १५१) । यह पल्लव राजा महेन्द्रविक्रमवर्मन के मत्तविलास प्रहसन का सातवाँ श्लोक है जो कपाली के मुख से कहलाया गया है। इससे एक पहेली उत्पन्न हो जाती है। या तो यशस्तिलक के लेखक ने लेखक का नाम ठीक से नहीं बताया या यह श्लोक भास के किसी ऐसे नाटक का है जो अभी उपलब्ध नहीं हो सका है और उसे मत्तविलास प्रहसन ने ज्यों-का-त्यों उठा लिया है, जो मात्र प्रहसन होने के कारण कोई गम्भीर बात नहीं थी । प्रस्तुत लेखक दूसरे मत को अंगीकार करता है । ६२. चक्रस्थितौ रजक - वायक - चर्मकार - कापालिक प्रमुख शिल्पिभिरेक पात्रे | पानेन मुक्तिम विकल्परतोत्सवेन वृत्तेन त्रोत्सवता गुरवो वरन्ति ॥ दशावतारचरित ( पृ० १६२ ) । चक्रपूजा के विषय में आगे लिखा जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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