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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र गुरुमक्ति के फल समान होते हैं। कुलार्णव (११।४६) में आया है कि गुरुओं, आगमों, आम्नाय, मन्त्र एवं प्रयोगों का क्रम जब गुरु के अधरों द्वारा सुना जाता है तो हितकर होता है, अन्यथा नहीं। प्रपञ्चसार में आया है'शिष्य को यह मन में विचारना चाहिए कि गुरु, देवता एवं मन्त्र एक ही है, और उसे गुरु से प्राप्त मन्त्र को एक सौ बार जपना चाहिए। वेदान्त पद्धति को समझने के लिए उच्च ज्ञान एवं नैतिक उपलब्धियों की आवश्यकता होती है और यह बहुत ही थोड़े प्रतिभाशाली व्यक्तियों द्वारा समझा भी जा सकता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि तन्त्र ऐसी विधि उपस्थित करते हैं जिसके द्वारा सामान्य ज्ञान के व्यक्ति भी लाभ उठा लेते हैं, जिसके द्वारा चाक्षुष एवं शारीरिक गतियों से आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त हो सकती है तथा मन्त्रों के पाठ, मुद्राओं, न्यास, मण्डलों, चक्रों एवं यन्त्रों से मुक्ति-प्राप्ति में शीघ्रता हो सकती है। तान्त्रिक लेखकों ने गुरु की प्रशंसा एवं आदर-भक्ति में बड़ी अतिशयोक्ति की है और इस भावना की अभिव्यक्ति में ऐसी बातें कह डाली हैं जो घृणास्पद हैं। इस विषय में ताराभक्तिसुधार्णव (४, पु. ११६) का उद्धरण उल्लेखनीय है । पञ्च मकारों के विषय में तान्त्रिक ग्रन्थों की शिक्षा ने सभी वर्गों एवं जातियों के लोगों, विशेषत: समाज के निम्नवर्गीय लोगों में अस्वास्थ्यकर एवं अनैतिक प्रवृत्तियाँ उत्पन्न कर दी होंगी। ७वीं शती से १२वीं तक के लम्बे काल में हिन्दू एवं बौद्ध तान्त्रिकों का दौर-दौरा था। वज्रयान के एक सम्प्रदाय में गुरु लोग नीले रंग का वस्त्र धारण करते थे। सम्मितिय शाखा के एक गुरु के विषय में एक गाथा है। गरु महोदय नील पट धारण करके एक वेश्या के यहाँ गये। वे रात्रि में मठ को लौट कर नहीं आये। जब प्रात:काल उनके शिष्यों ने नीलपट धारण करने का कारण जानना चाहा तो गुरु महाराज ने नीलपट के आध्यात्मिक महत्त्व को समझाया। तभी से उनके अनयायियों ने नीलपट धारण करना आरम्भ कर दिया। उनकी पुस्तक 'नीलपटदर्शन' में ऐसा उल्लिखित है-'कामदेव' एक रत्न हैं, वेश्या एक रत्न है, मदिरा एक रत्न है, मैं इन तीन रत्नों को नमस्कार करता है; अन्य तथाकथित तीन रत्न शीशे की मनियाँ मात्र हैं'। यह जानना चाहिए कि भक्त बौद्धों के लिए बुद्ध, धर्म एवं संघ तीन रत्न कहे गये हैं। नीलपटदर्शन के अनुयायीगण इन तीन रत्नों को व्यर्थ मानते हैं, उन्हें केवल शीशे की गुटिकाएँ मात्र मानते हैं। देखिए भिक्षु राहुल सांकृत्यायन का निबन्ध 'ऑन वज्रयान और मन्त्रयान' (जे० ए०, जिल्द २२५, १६३४, पृ० २१६), जहाँ यह गाथा दी हुई है। झूठे गुरुओं ने लोगों को मद्य, मांस एवं नारियों के साहचर्य की सरल विधि द्वारा निर्वाण प्राप्ति की हरी बाटिका दिखा कर उनको भ्रमित कर दिया। इस लम्बे काल में भारतीय साहित्य मद्य, मांस एवं मैथुन से संचालित तान्त्रिक पूजा की भर्त्सना एवं उपहासात्मक आलोचनाओं से परिपूर्ण है। दो-एक उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। राजशेखर (लगभग ६०० ई०) द्वारा प्रणीत प्राकृत नाटक 'कर्पूरमञ्जरी' का एक पात्र भैरवानन्द है, जो अलौकिक शक्ति वाला कहा जाता है। उसने (मदवश या मतवाला होने का नाट्य करते हुए) कहा है-'गुरु के प्रसाद से हम लोग मन्त्रों या तन्त्रों या ध्यान के विषय में कुछ भी नहीं जानते। हम मद्य पीते हैं, महिलाओं के साथ रमण करते हैं तब भी कुलमार्ग में संलग्न रहने के कारण मोक्ष पाते हैं। एक उग्र गणिका दीक्षित की जाती है और नियमानुकल पत्नी बनायी जाती है, मद्य पिया जाता है, मांस खाया जाता है, भोजन भिक्षा से प्राप्त होता है, हम लोगों की शैया चर्म-खण्ड की है। यह कौलधर्म किसको आकर्षक नहीं लगता? ५६. भगिनों वासुतां भााँ यो दद्यात्कुलयोगिने। मधुमत्ताय देवेशि तस्य पुण्यं न गण्यते । ताराभक्ति सुधार्णव (४, पृ० ११६) द्वारा उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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