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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास के शिष्य उमानन्दनाथ के नित्योत्सव में गुरु भास्करराय की प्रशंसा निम्नोक्त अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से हुई है५४ 'उन्हें इस पृथि । (भूमण्डल) का कोई भी अंश (योग दृष्टि के कारण) अदृष्ट नहीं था, कोई भी राजा ऐसा नहीं था जो उनका दास न रहा हो, उन्हें कोई भी शास्त्र अज्ञात नहीं था, अधिक क्यों कहा जाय, उनका स्वरूप स्वयं पराशक्ति थी' । किन्तु ज्ञानसिद्धि एवं कुलार्णव (१३।१२८) ने ऐसे गुरुओं से सावधान किया है जो धनलोभ से लोगों को धर्म-शिक्षा देते हैं और सत्य जानने का बहाना करते हैं। कुलार्णव (उल्लास १२ एवं १३) ने गुरु की अर्हताओं एवं महत्ता का उल्लेख किया है। और देखिए शारदातिलक (२।१४२-१४४ एवं ३।१४५-१५२), जहाँ तान्त्रिक गुरु एवं शिष्य की अर्हताओं की चर्चा हैं५५ । गुरु को सभी आगमों, शास्त्रों के तत्त्वों एवं अर्थ को जानना चाहिए, उसका वचन अमोघ (जो सत्य हो) होना चाहिए, उसे शान्त मनवाला होना चाहिए, उसे वेद एवं वेदार्थ में पारंगत होना चाहिए, उसे योगमार्गानुगामी होना चाहिए और उसे देवता के समान कल्याणकारी होना चाहिए। शिष्य को चाहिए कि वह मन्त्रों, पूजा एवं रहस्यों को गोपनीय रखे५६ । शिष्य अपने गुरु के चरणों को अपने सिर पर रखता है, अपना शरीर, धन एवं जीवन गुरु को समर्पित कर देता है। उपनिषदों ने भी गूढ़ दर्शन की प्राप्ति के लिए गुरु की आवश्यकता पर बल दिया है। उदाहरणार्थ, कठोपनिषद्५७ में आया है--'यह ज्ञान तर्क से नहीं प्राप्त किया जा सकता, यह भलीभाँति तभी समझा जा सकता है जब कि किसी अन्य द्वारा इसकी व्याख्या की जाय। और देखिए छा० उप० (४६३) । लिंगपुराण५८ आदि का कथन है कि गुरु शिव के समान है और शिवभक्ति एवं ५४. यस्यादृष्टो नै भूमण्डलांशो यस्यादासो विद्यते न क्षितीशः । यस्याज्ञातं नैव शास्त्रं किमन्य यस्याकारः सा परा शक्तिरेव ॥ नित्योत्सव का आरम्भिक श्लोक ४ । डा० बी० भट्टाचार्य ने गुह्यसमाज० (१० १३) में जो लिखा है उससे पता चलता है कि उन्होंने इस श्लोक को सर्वथा गलत समझा है क्योंकि उन्होंने अनुवाद यों किया है--'पराशक्ति वह है जिसको इस विस्तृत विश्व का कोई अंश बिना देखा हुआ नहीं है...' आदि । ५५. सर्वागमानां सारज्ञः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् । ... अमोघवचनः शान्तो वेदवेदार्थपारगः। योगमार्गानुसन्धायी देवताहृदयङ्गमः। शारदा० २११४२-१४४।। ५६. मन्त्रपूजा रहस्यानि यो गोपयति सर्वदा। शारदा० (२११५१)। ५७. नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्यनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ । कठ० (२६)। ५८. यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः। यथा शिवस्तथा विद्या यथा विद्या तथा गुरुः॥ शिव विद्यागुरोस्तस्माद् भक्त्या च सदृशं फलम्। सर्वदेवमयो देवि सर्वशक्तिमयो हि सः। लिंगपुराण (११८५), १६४-१६५ ); गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णुगुरुदेवो महेश्वरः । गुरुरेव परमं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवेनमः ॥ देवीभागवत (११।१।४६); ब्रह्माण्डपुराण के ललितोपाख्यान में ऐसा आया है-'मनुष्यचर्मणा बद्धः साक्षात्परशिवः स्वयम् । सच्छिष्यानुग्रहार्थाय गूढं पर्यटति क्षितौ॥ अत्रिनेत्रः शिवः साक्षादचतुर्बाहुरच्युतः । अचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगडः कथितः प्रिये ॥' (४३।६८-७०)। ये श्लोक कुलार्णव में भी पाये जाते हैं और दोनों में बहुत-से श्लोक एक-से हैं। किसने किससे उद्ध त किया है, यह कहना कठिन है। शारदातिलक (५।११३-११४) में आया हैगाविद्यादेवतानामैक्यं सम्भावयन् धिया। प्रणमेद् दण्डवद्भूमौ गुरुं तं देवतात्मकम् ॥ तस्य पादाम्बुजद्वंद्वं निजे मर्धनि योजयेत् । शरीरमर्थ प्राणं च सर्व तस्मै निवेदयेत् ॥ प्रपञ्चसार ( ६।१२२ ) में आया है-'गरुणा समनगृहीतं मन्त्रं सद्यो जपेच्छतावृत्या। गुरुदेवतामनूनामक्यं सम्भावयन् धिया शिष्यः॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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