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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
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बु० ई०,
यदि हम ई० पू० ४८३ को बुद्ध के परिनिर्वाण की तिथि मान लें (जैसा बहुत से विद्वान् मानते हैं) या ई० ༢༠ ४७७ (जैसा ए० फाउचर मानते हैं) को मानें, तो उससे ५०० वर्ष उपरान्त होगी ईसा के उपरान्त की प्रथम शती, और यह प्रकट है कि उससे एक या दो शती उपरान्त बुद्ध की शिक्षा का बहुत कुछ अंश महायान एवं वज्रयान तन्त्रों के सिद्धान्तों से नष्ट हो चुका था । ऐसा दुर्भाग्य रहा कि बुद्ध का 'धर्म चक्र प्रवर्तन' उनके वज्रयानी अनुयायियों द्वारा 'अधर्म चक्र प्रवर्तन' में परिवर्तित कर दिया गया । महापरिनिब्बानसुत्त ( ५।२३, ० जिल्द ११, पृ० ६१) में बुद्ध ने अपनी कठोर बात कही थी और भिक्षुओं को भिक्षुणियों से दूर रहने के लिए सावधान कर दिया था । उन्होंने कहा था -- 'उनकी ओर न देखो, यदि ऐसा करना सम्भव न हो तो उनसे बातें न करो और यदि कोई भिक्षुणी बात कर रही हो तो बहुत सावधान रहो'। बुद्ध ने अपने एक शिष्य को इसलिए घुड़क दिया कि उसने अलौकिक शक्तियाँ प्रदर्शित कर दी थीं (चुल्लवग्ग, , सै० बु० ई०, जिल्द २०, पृ० ७८ ) । किन्तु गुसमाज एवं अन्य बौद्ध तन्त्रों ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि साधक लोग अलौकिक शक्तियाँ (सिद्धियाँ) रखने लगे, यथा——- अनावृष्टि पर वृष्टि कराना, शत्रु की प्रतिमा पर जादू की क्रिया करके उसे मारना ( गुह्यसमाज ०, पृ०, ८४, ६६)। इसके अतिरिक्त गुह्यसमाज० को अति भयंकर एवं क्रूर छह कर्म ( षट्कर्माणि) ज्ञात थे, यथा-शांति ( रोग एवं जादू को दूर करने की क्रिया), वशीकरण (स्त्रियों, पुरुषों यहाँ तक कि देवों को वश में करना ), स्तम्भन ( दूसरे की गतियों एवं क्रियाओं को रोकना ), विद्वेषण ( दो मित्रों या दो ऐसे व्यक्तियों में, जो एक-दूसरे को प्यार करते हैं, शत्रुता उत्पन्न कर देना ), उच्चाटन ( किसी व्यक्ति या शत्रु को देश या नगर या गाँव से भगाना ) एवं मारण (प्राणियों को मारना या न मिटने वाला घाव कर देना) । गुह्यसमाज ० ने इन छह कर्मों (विद्वेषण के स्थान पर आकर्षण रखा है) का उल्लेख क्रम से पृ० १६८, १६५, ६६, ८७ ( आकर्षण), ८१ एवं १३० में किया है | देखिए साधनमाला ( पृ० ३६८- ३६६ ) जहाँ इनके तथा इनके मण्डलों एवं कालों का उल्लेख किया गया है । शारदातिलकतन्त्र ऐसे मर्यादित ग्रन्थ ने भी इन छह कर्मों का उल्लेख किया है ( २३।१२२), उनकी परिभाषा दी है ( २३।१२३ - १२५ ) और लिखा है कि रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा एवं काली क्रम से इन कर्मों के देवता हैं, कर्मों के आरम्भ में उनकी पूजा होनी चाहिए । प्रातः से दस घटिकाओं की छह अवधियाँ इन छह कर्मों के लिए उचित हैं तथा इसी प्रकार कुछ ऋतुएँ भी हैं ( २३।१२६ - १३६ ) | यह बड़े आश्चर्य की बात है कि प्रपञ्चसार ( २३1५ ) ने, जो अद्वैत के महान् आचार्य शंकर द्वारा प्रणीत समझा जाता है, त्रैलोक्यमोहन नामक मन्त्र का विस्तार के साथ उल्लेख किया है, जो उपर्युक्त छह क्रूर कर्मों के लिए व्यवस्थित है ।
हिन्दू एवं बौद्ध दोनों तन्त्र गुरु की महत्ता एवं अर्हताओं पर प्रभूत बल देते हैं ५३ । बौद्ध तन्त्रों में गुरु के प्रति अत्यन्त आदर का भाव है । ज्ञानसिद्धि ( १३६ - १२ ) ने अर्हताओं का उल्लेख किया है तथा प्रज्ञोप्रायविनिश्चयसिद्धि (३।६।१६) में गुरु के प्रति उत्कृष्ट प्रशस्ति है, वे बुद्ध के सदृश कहे गये हैं, विभु आदि पदवियाँ दी गयी हैं। लक्ष्मीङकराकृत अद्वयसिद्धि ( लगभग ७२६ ई० ) में ऐसा आया है कि तीन लोकों में आचार्य से बढ़कर कोई अन्य नहीं है। लक्ष्मीङकरा ने एक विलक्षण सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि अपने शरीर की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसमें सभी देवों का निवास रहता है। भासरानन्दनाथ ( अर्थात् भास्करराय, दीक्षा के पूर्व का नाम )
५३. आचार्यात्परतरं नास्ति त्रैलोक्यं सचराचरे । यस्य प्रसादात्प्राप्यन्ते सिद्धयोऽनेकधा बुधैः । साधनमाला ( जिल्व २, भूमिका पू० ६४-६५) ।
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