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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र कर लेता है और उनकी विलक्षण समरसता का द्योतन करता है। यहाँ पर इस ग्रन्थ का निष्कर्ष उपस्थित करना एवं उसकी आलोचना करना सम्भव नहीं है। वज्रयान तन्त्रों के सिद्धान्त का मूल यहाँ पाद-टिप्पणियों (संख्या ४३, ४४, ४६ एवं ४७) में उद्धृत है। तर्क यह है-इन तन्त्रों के अनुसार पूर्णता का प्रत्यक्षीकरण सभी मानवीय अनुभूतियों में अत्यन्त आनन्ददायक अनुभूति है, और मनुष्य की अनुभूति तब तक पूर्ण नहीं हो सकती और केवल एकपक्षीय रहेगी जब तक कि उसे स्त्रीत्व की अनुभूति न हो जाय अर्थात् स्त्री के सभी कुछ की अनुभूति न हो जाय । वह अपने कुल के सभी स्त्री-सदस्यों से स्त्रीत्व की अनुभूति प्राप्त कर सकता है। अतः, जैसा कि डा० गुयेन्थर का कथन है, इस पर आश्चर्य नहीं प्रकट करना चाहिए कि 'इस अनुभूति में अगम्यगामी रूप पाया जाता है। इसके उपरान्त डा० गुयेन्थर ने (पृ० १०६-११२) बड़े विस्तार के साथ अपने मन्तव्य की व्याख्या की है, जो प्रस्तुत लेखक की बुद्धि एवं सामर्थ्य के परे की बात है। डा० गुयेन्थर आज के मनोवैज्ञानिकों, विशेषत: डा० सिगमण्ड फ्राएड की अत्याधुनिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि आठवीं शती के बौद्ध लेखक, यथा अनंगवन एवं इन्द्रभूति, आज के चित्त-विश्लेषकों की भाँति मानसिक जीवन की गहराइयों में डूब चुके थे और मानव-मन के रहस्यों को जान सके थे। थोड़ी देर के लिए यदि हम डा० गुयेन्थर की कुछ बातें मान भी लें, यथा--द्विलिंगता का सिद्धान्त (पुरुष एवं स्त्री जाति का एक व्यक्ति में होना),दोनों (पुरुष एवं स्त्री) के अत्यन्त प्रगाढ़ सम्बन्ध के लिए मैथुन-सदस्यता सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है, पुरुष के लिए स्त्री एक भौतिक द्रव्य एवं देवी है, तब भी एक प्रश्न अनुत्तरित एवं अव्याख्यायित-सा रह जाता है, जो यह है-बौद्ध तान्त्रिकों ने साधक को इस बात के लिए क्यों नहीं प्रेरित किया कि वे अपनी माता, बहन, पत्नी, पुत्री या सामान्य नारी के रूप में एक स्त्री के संवेगों, दृष्टिकोणों एवं मूल्य को समझें? या उन तान्त्रिकों ने लक्ष्य की प्राप्ति में शीघ्रता के लिए बहुधा और कोलाहलपूर्ण ढंग से मैथुन को ही, और वह भी अगम्यगामी ढंग वाले मैथुन (यथा माता, बहन, पुत्री आदि के साथ) को, क्यों उचित माना है ? गुह्यसमाजतन्त्र ने योग की क्रियाओं द्वारा बुद्धत्व एवं सिद्धि की प्राप्ति के लिए लघु एवं क्षिप्रकारी विधि बतायी है। सिद्धियां दो प्रकार की होती हैं--सामान्य (यथा अदृश्य हो जाना)४८, एवं उत्तम (यथा बुद्धत्व की प्राप्ति) । सामान्य सिद्धियों की प्राप्ति के लिए चार साधन उल्लिखित हैं जो वज-चतुष्क कहे गये हैं । यह व्यवस्थित है कि उत्तम सिद्धि की प्राप्ति योग के छह अंगों (प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति एवं समाधि) से प्राप्त ज्ञान के अमृत-पान से ही हो सकती है। यह अवलोकनीय है कि योगसूत्र में उल्लिखित प्रथम तीन अंगों, ४८. अन्तर्धानादयः सिद्धाः (सिद्धयः) सामान्या इति कीर्तिताः । सिद्धिरुत्तममित्याहुर्बुद्ध्वा बुद्धत्वसाधनम् ॥ चतुर्विधमुपायं तु बोधि वजण वणितम् ।... सेवाविधानं प्रथम द्वितीयमुपसाधनम् । साधनं तु तृतीयं वै महासाधनं चतुर्थकम् ॥ सामान्योत्तमभेदेन सेवा तु द्विविधा भवेत् । वज चतुष्केण सामान्यमुत्तमं ज्ञानामृतेन च। गुह्यसमाज० १६वाँ पटल , (पृ० १६२)। ४६. उत्तमे ज्ञानामृते चैव कार्य योग षडङगतः । सेवा षडङगयोगेन कृत्वा साधनमुत्तमम् । साधयेदन्यथा नव जायते सिद्धिरत्तमा । प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा। अनुस्मृतिः समाधिश्च षडङगोयोग उच्यते। गुह्यसमाज० (पृ० १६३) । ये छह अंग पृ० १६३-१६४ में व्याख्यायित हुए हैं। अनुस्मृति को व्याख्या यों है-'स्थिरं तु वजमार्गेण स्फारयीत स्वधातुषु । विभाव्य यदनुस्मृत्या तदाकारं तु संस्मरेत् । अनुस्मृतिरिति या प्रतिभासोऽत्र जायते॥' गुह्यसमाज० (पृ० १६४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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