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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रयोग की अनुमति दे रखी है, यथा--हाथी, घोड़ा, कुत्ते का मांस, यहाँ तक कि मानव मांस भी४६ । आरम्भिक बौद्ध धर्म ने सत्यता एवं ब्रह्मचर्य पर बल दिया; वज्रयान ने, जो एक नये ढंग का विरोध-प्रकार था, पशुओं की हत्या, असत्य भाषण, स्त्रियों के साथ संभोग (यहाँ तक कि माता, बहन एवं पुत्री के साथ भी) तथा परद्रव्यग्रहण की अनुमति दे दी। यह था वजमार्ग, जो सभी बौद्धों के लिए सिद्धान्त-सा घोषित था। वज्रयान-पद्धति द्वारा प्राप्त स्थिति का उल्लेख 'प्रज्ञोपायः' (१।२०) में हुआ है--'यह न तो द्वयता है और न अद्वयता, यह शान्त (शान्ति से भरपूर) है, शिव (कल्याणमय) है, सर्वत्र पाया जाने वाला है, अपनी आत्मा से ही जाना जाने वाला है, अचल है, आकुलतारहित है, प्रज्ञा (ज्ञान) एवं उपाय (करुणा के साथ कर्म) से परिपूर्ण है । इसमें पुनः आया है (५।२२-२३)---'उनके द्वारा, जो मुक्ति की कांक्षा रखते हैं तथा ज्ञान की पूर्णता चाहते हैं, यह सेवित होने योग्य है। यह ज्ञान की सिद्धि ललना (स्त्री) के रूप में सभी स्थानों में अवस्थित है। प्रज्ञा का सम्बन्ध महासुख से है (प्रज्ञोपाय०, ११२७)--'अनन्त सुख देने के कारण यह महासुख कही जाती है, यह सभी प्रकार से हितकर है और अत्यन्त श्रेष्ठ है, इससे पूर्ण सम्बोधि प्राप्त होती है। यह बुद्ध ज्ञान, जो अपनी अन्तरात्मा द्वारा ही जाना जा सकता है, महासुख कहलाता है, क्योंकि यह सभी आनन्दों से उत्कृष्ट है (ज्ञानसिद्धि । 'प्रज्ञा' शब्द स्त्रीलिंग है अत: कुछ वज्रयान-लेखकों ने इसे स्त्री से संयोजित माना है; कामुक प्रतीकवाद एवं असुगम समानताओं द्वारा स्त्री-सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव किया गया। डा० एच० वी० गुयेन्थर ने 'युगनद्ध' नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित किया है, जिसमें तान्त्रिक दृष्टिकोण पर आधारित जीवन की उद्घोषणा की गयी है। डा० गुयेन्थर ने उस ग्रन्थ (१६० पृष्ठों) में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि बौद्ध तान्त्रिक लोग जीवन को सम्पूर्णता में लाना चाहते हैं, जो कि न तो विषयों के प्रति आसक्ति है और न अनासक्ति और न पलायन ; प्रत्युत है जीवन के कठोर सत्यों के प्रति पूर्ण समझौता । तन्त्रों का काम-सम्बन्धी स्वरूप केवल दर्शन (शास्त्र) के ज्ञानवाद एवं बुद्धिवाद (तर्क-विवेकवाद) के एकपक्षीय स्वरूप का संशोधन मात्र है, क्योंकि दर्शन प्रतिदिन के जीवन की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ नहीं है और युगनद्ध का प्रतीक पुंसत्व एवं स्त्रीत्व स्थूल सत्य एवं प्रतीकात्मक सत्य तथा ज्ञान एवं मानवता की पूर्ण व्याख्या ४६. मांसाहारादिकृत्यार्थ महामांसं प्रकल्पयेत् । ... हस्तिमांसं हयमांसं श्वानमांसं तथोत्तमम् । भक्षेदाहारकृत्यार्थ न चान्यत्तु विभक्षयेत् । प्रियो भवति बुद्धानां बोधिसत्त्वश्च धीमताम् । अनेन खलु योगेन लघु बुद्धत्वमाप्नुयात् । गुह्यसमाज० (छठा पटल, पृ० २६); देखिये इन्द्रभूति द्वारा लिखित ज्ञानसिद्धि (१३१२-१४), जहाँ ऐसे ही पद आये हैं-प्राणिनश्च त्वयाघात्या वक्तव्यं च मृषा वचः। अदत्तं च त्वया ग्राह्य सेवनं योषितामपि ॥ ४७. अनेन वजमार्गेण वज सत्त्वान् प्रचोदयेत् । एषोहि सर्वबुद्धानां समयः परम शाश्वतः ॥ मध्यस० (१६ वा पटल, पृ० १२०); ये पर द्रव्याभिरता नित्यं कामरताश्च ये। ... मातृभगिनी पुत्रीश्च कामयेद्यस्तु साधकः। स सिद्धि विपुलां गच्छेत् महायानानधर्मताम् । गुह्यस० (५ वा पटल, पृ० २०); 'सर्वाङगकत्सितायां वा न कुर्यादवमाननाम् । स्त्रियं सर्वकुलोत्पन्नां पूजयेद वज धारिणीम् ॥ चाण्डाल कुल सम्भूतां डोम्बिका वा विशेषतः । जुगुप्सितकुलोत्पन्नां सेवयन् सिद्धिमाप्नुयात् । ज्ञानसिद्धि (१८० एवं ८२) । और देखिये डा० गुयेन्थर (युगनद्ध, पृ० १०६-१०६), जिन्होंने इसकी तथा इसके समान प्रज्ञोपाय० (१२५) के क्वन की व्याख्या की है । देखिये डा० एस० बी० दास-गुप्त का प्रन्थ 'इण्ट्रोडक्शन १ तान्त्रिक बुद्धिज्म', पृ० ११४॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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