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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
२७ संक्षेप में बौद्ध तन्त्रों, विशेषतः वज्रयान के विषय में कुछ शब्द लिख देना अनावश्यक न होगा। यह हमने बहुत पहले (गत अध्याय-२४ में) देख लिया है कि हीनयान या महायान दोनों प्रकार के बौद्धों के लिए कुछ कठोर नियमों एवं रीतियों का पालन आवश्यक था, यथा पंचशीलों का पालन, बुद्ध, धर्म एवं संघ की शरण जाना तथा (भिक्षुओं के लिए) दशशीलों का पालन। निर्वाण की प्राप्ति (विशेषतः महायान, सिद्धान्त के अन्तर्गत) लम्बी अवधि या कतिपय जन्मों के उपरान्त होती है। मद्य, मांस, मत्स्य एवं स्त्रियाँ वजित थीं, सामान्य लोग, सम्भवतः भिक्ष भी कठोर नियमों एवं लक्ष्य की लम्बी अवधि को जोहते-जोहते थक गये थे। बौद्ध तन्त्रों ने, विशेषत: गुह्यसमाज० (वज्रयान सम्प्रदाय का तन्त्र ग्रन्थ) ने एक सरल विधि निकाली, जिसके द्वारा थोड़े समय में निर्वाण, यहाँ तक कि बुद्धत्व भी,४३ केवल एक ही जीवन में प्राप्त हो सकता था, और यह भी दृढतापूर्वक घोषित किया कि बोधिसत्त्वों एवं बौद्धों ने धर्म का आसन सर्वकामों के उपसेवन से ही प्राप्त किया । 'वज' शब्द के दो अर्थ होते हैं-'हीरक' (हीरा) एवं 'मेघगर्जन' (मेघध्वनि)। गुह्यसमाज में प्रथम. अर्थ मुख्य रूप से लिया गया है, किन्तु दूसरा अर्थ भी थोड़ा-बहुत लिया गया है। वन उस वस्तु का द्योतक है जो हीरा के समान कठोर हो। गुह्यसमाजतन्त्र में 'वज्र' शब्द अकेले या सामासिक रूप में सैकड़ों बार आया है। 'काय' (शरीर), 'वाक्' (वाणी) एवं 'चित्त' (मन) 'त्रिवज्र' कहे गये हैं (गह्य० प०३१,३५, ३६, ४३)। कतिपय अन्य पदार्थ४५भी वज्र कहे गये हैं, यथा-शून्य (माध्यमिक सम्प्रदाय का परम तत्त्व), विज्ञान (चेतना), जो योगाचार सम्प्रदाय के अनुसार परम तत्त्व है तथा महासुख जिसे शाक्तों ने जोड़ दिया है। शाक्तों की रहस्यवादी भाषा में यह पुरुषेन्द्रिय भी कहा गया है। यद्यपि आरम्भिक बौद्ध नियम अहिंसा पर बल देते थे, किन्तु गुह्यसमाज ने कई प्रकार के मांसों के
४३. तदिहव जन्मनि गुह्यसमाजाभिरतो बोधिसत्त्वः सर्वतथागतां बुद्ध इति संख्यां गच्छति । गुह्यस० (पृ० १४४); देखिये ज्ञानसिद्धि (१।४) : 'ये तु सत्त्वाः समारूढाः सर्वसंकल्पवर्जिताः । ते स्पृशन्ति परां बोधि जन्मनीहव साधकाः॥ और देखिये प्रजोपाय० (११६) ।
४४. सर्वकामोपभोगश्च सेव्यमानर्यथेच्छतः। अनेन खलु योगेन लघु बुद्धत्वमाप्नुयात् ॥ दुष्करैनियमस्ती+ सेव्यमानो न सिध्यति ॥ ... बुद्धाश्च बोधिसत्त्वाश्च मन्त्रचर्यानचारिणः । प्राप्ता धर्मासनं श्रेष्ठं सर्वकामोपसेवनः॥ गुह्यस० (७ वा पटल, पृ० २७)।
४५. देखिये विन्तरनित्ज का ग्रन्थ 'हिस्ट्री आव इण्डियन लिटरेचर' (जिल्द १, पृ० ३८८) जहाँ 'वज' शब्द के कई अर्थ प्रकट किये गये हैं। यह द्रष्टव्य है कि ज्ञानसिद्धि (२।११, बौद्ध ग्रन्थ) में आया है-'स्त्रीन्द्रियं च यथा पनं वज्ज पुंसेन्द्रियं तथा॥' शून्यता वज कहलाती है क्योंकि यह 'दृढसारमसौ (सं?) शीर्यमच्छेद्याभेद्यलक्षणम्। अदाहि अविनाशि च शून्यता वजमुच्यते ॥' अद्वयवजसंग्रह (गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज , पृ० २३, ३७)। यह कुछ-कुछ ब्रह्म एवं आत्मा के सिद्धान्त के समान है, जो भगवद्गीता (२।२३-२५) में पाया जाता है (नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, आदि)। ज्ञानसिद्धि (पृ० ७६) ने व्याख्या की है-'सर्वसत्त्वेषु महाकरुणा प्रमाणानुगतं बोधिचित्तं वज इत्यर्थः' अर्थात् 'वज' एवं 'बोधिचित्त' (सम्बुद्धता या सम्बोधि) समानार्थक हैं। न द्वयं नाद्वयं शान्तं शिवं सर्वत्र संस्थितम् । प्रत्यात्मवेद्यमचलं प्रज्ञोपायमनाकुलम् ॥ प्रज्ञोपाय० (११२०); प्रज्ञापारमिता सेव्या सर्वथा मुक्तिकांक्षिभिः।... ललनारूपमास्थाय सर्वत्रैव व्यवस्थिता। अतोर्थ वजनाथेन प्रोक्ता बाह्यार्थ सम्भवा ।। प्रज्ञोपाय० (२२२-२३)।
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